Friday 14 December, 2007

बॉबी बोरिस के साथ जहान की सैर

बचपन में बच्चों वाली पढ़ी किताबें याद करने बैठें तो हिन्दी में बेहद उम्दा रूसी किताबों का अनुवाद याद आता है , मिश्का का दलिया , निकिता का बचपन और बॉबी बोरिस और रॉकेट । पहली दो किताबों के लेखक शायद श्री अ नोसोव हैं ( अ माने क्या ? अलेक्सान्द्र ? पर जहाँ तक याद है नाम में सिर्फ अ ही था , खैर ) बॉबी बोरिस के तो लेखक तक का नाम याद नहीं , प्रकाशक और अनुवादक तो खैर नहीं ही , अब इसका इतना अफसोस , क्या कहें । पर भरपाई में कहानी लगभग पूरी याद है , कवर आँखों के सामने है , अंदर की शानदार छपाई और इलसट्रेशंज़ के तो क्या कहने । क्रीम कलर के चमकते कागज़ पर मन मोहने वाले पेंसिल स्केचेज़ ।

मिश्का और निकिता के क्रीम कैनवस का कवर और सीधे बड़े अक्षरों में , बिना लाग लपेट के लिखा नाम ,बॉबी बोरिस में पीपेनुमा रॉकेट से भौंचक आँखों ताकता झबरीला कुत्ता नीले आसमान में उड़ान भरता । बॉबी कुत्ते की आवारा भौंचक आँखें , रुसता फूलता हमारा अंवेशणकर्ता गेना और धीर गंभीर पर नटखट शरारती बोरिस और उनको दिनरात तंग करती जासूस लीदिया (या लुदमिला , ठीक याद नहीं ) ।. माँ को इमोशनल ब्लैकमेल करके दर्जन भर अंडे अपने किसी अनुसंधान के लिये माँगते गेना की दरवाज़े पर पेट के बल लटकने का रेखाचित्र अभी अभी आँखों के आगे कितना साफ लहरा गया । पिछले दो पन्नों पर उन कुत्तों की तस्वीर जो अंतरिक्ष में गये, लाईका , ओत्वाज़नाया और अन्य नाम जो अब याद नहीं ।

बॉबी बोरिस और रॉकेट , ये किताब दो दोस्तों की कहानी थी, बोरिस और गेना और बोरिस के कुत्ते बॉबी की। बोरिस और गेना दिनरात अनुसंधान में लगे रहते। एक पीपे को रॉकेट बनाकर और अपने प्यारे कुत्ते बॉबी को अंतरिक्ष यात्री बनाकर वे कोशिश करते हैं उसे अंतरिक्ष में भेजने की। प्रयास असफल रहता है और इसी क्रम में वे बॉबी को खो देते हैं। बहुत तलाशने के बावज़ूद वे उसे खोज नहीं पाते। इसी बीच घायल बॉबी को एक आवारा जानवरों के आश्रय में घर मिल जाता है। अंतरिक्ष में कुत्तों को भेजने का सरकारी अनुसंधान चल रहा है और कई ऊँची नस्ल के कुत्तों को आजमाने के बाद ये निष्कर्श निकलता है कि अंतरिक्ष यात्रा के लिये जिस तरह के धैर्य की जरूरत है वो सिर्फ आवारा कुत्तों में ही पाया जाता है। उसके बाद बॉबी की यात्रा "दिलेर" बनने की शुरु होती है। अंतरिक्ष से सफलता पूर्वक वापस आने पर टीवी पर बोरिस और गेना उसे पहचान लेते हैं और उनका सुखद मिलन होता है.।

किताब इतनी रोचक थी कि हम उसे कई बार पढ गये थे. शैली मज़ेदार थी और कहानी में बच्चों और कुत्तों की मानसिकता का इतना प्यारा वर्णन था कि कई बार बडी तीव्र इच्छा होती कि काश उन बच्चों सी हमारी जिंदगी होती। हमारा ज्ञान अंतरिक्ष के बारे में भी खासा बढ गया था और यूरी गगारिन, वैलेंतीना तेरेश्कोवा जैसे नाम हमारी ज़बान पर चढ गये थे । ये किताब शायद उस दौर में लिखी गई थी जब सोवियत संघ और अमरीका में दौड़ चल रही थी , अंतरिक्ष में पहली घुसपैठ किसकी हो , स्पूतनिक और अपोलो , चाँद और पहली अंतरिक्ष यात्रा ? वोस्तोक और सोयूज़ , जेमिनी और अपोलो ।
पठनीयता और प्रवाह के साथ अस्ट्रोनोमी और विज्ञान का ऐसा अद्भुत संसार इस किताब ने खोला कि हम हैरान । साईंस फिक्शन पढने का चस्का इसी किताब की देन है ।

(किताबी कोना पर इसे डालने का एक फायदा , क्या पता किसी ने इसे पढ़ी हो , उन्हें कुछ और डिटेल्स याद हों , इस किताब को फिर लोकेट किया जा सके । ऐसे ही आगे मिश्का का दलिया और निकिता का बचपन के बारे में भी लिखूँगी । फिर बाकी किताबें .. )

पुन : किताबी कोना हिन्दी किताबों का कोना है । बॉबी बोरिस और रॉकेट चूँकि हिन्दी में अनुदित है इसलिये मोहवश खींच खाँचकर इसे यहाँ डाल देने का पाप कर रही हूँ । क्षमाप्रार्थी हूँ ।

9 comments:

अफ़लातून said...

उस युग को याद किया । भतीजे के जन्म तक रूस का विघटन नहीं हुआ था और भाकपा को चन्दे के रूप में कागज से भी सस्ते दामों पर साहित्य आता था। अन्तरिक्ष आदि से पहले 'बूढ़े आदमी का दस्ताना' याद आता है ,ठण्ड से बचने के लिए जिसमें कुदुक-फुदुक मेंढक,छैल-छबीली लोमड़ी,सरपट चाल खरगोश आदि शरण पा लेते हैं लेकिन गुर्रामल गुर्रामल भेडिए भी घुसने की कोशिश करता है-जिसके बाद सभी बरफ़ में इधर उधर भागते हैं।
चुक और गेक पर फिल्म भी बनी थी।फिर एन सी ई आर टी की किताबें रूसी किताबों से काफ़ी प्रेरित होती थीं,सो रूसी स्कूली विज्ञान पुस्तकें भी आकर्षित करती रहीं?
एब्स्ट्रैक्ट पर रोक के कारण यथार्थ चित्रण ज्यादा मजबूत रहता होगा-बाद में कला शिक्षक ने बताया।
फिलहाल ,जयपुर से हर साल उस जमाने के बचे-कुचे स्टॉक को ले कर एक मिनी बस हर साल बनारस आती है।

सुजाता said...

बहुत अच्छी याद दिलाई । निकोलाई नोसोव और अन्य कई रूसी लेखकों को पढा बचपन में। बडी प्यारी कहानियाँ थीं-'बिल्ला फँस गया छत के ऊपर'और एक बहुत मज़ेदार थी-पापा बचपन में क्या बनना चाहते थे...शायद ऐसी ही कुछ

Unknown said...

... उसका नाम था - "पापा जब बच्चे थे" - लेखक याद नहीं लेकिन चश्मे वाले इकहरे पापा ज़रूर याद है (जिनके ऊपर थोक में तरस आता था) - "निकिता का बचपन" के अलावा एक "सुनो कहानी बिटिया रानी भी" और एक मोटी सी लाल जिल्द की "Russian Folk Tales" (शायद अभी भी लाइब्रेरी में है) - हमारे शहर में भी प्रगति प्रकाशन की बस भी आती थी और दिल्ली में कनौट प्लेस में एक बड़ी दुकान भी थी उनकी (मीशा, वावा, साशा वगैरह वगैरह -)

Unknown said...
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Pratyaksha said...

निकीता का बचपन , राँची गई थी , कबाड़ छान खोज बीन कर निकाल लाई । हाल अब तक दुरुस्त पर स्मृति में पन्ने ज़्यादा चमकीले थे। दिल ज़्यादा न टूटा .. पहले कुछ पन्ने पढ़े .. बर्फ पर धूप की चमक अब तक!

महेन said...

यह किताब तो नहीं मगर इस तरह की दूसरी किताबें मैनें बहुत पढ़ी हैं। अब तो सब न लौटाने वाले लोगों की भेंट चढ़ गईं। खैर… अगर मैं ग़लत नहीं हूँ तो ये सभी किताबें रादुगा प्रकाशन, मास्को से प्रकाशित होती थीं और सोवियत के विघटन के बाद भी कुछ वर्षों तक बहुत ही कम दामों पर उपलब्ध थीं। मैनें चेखव के नाटक, गोर्की की आत्मकथा, ताल्स्तोय का कज़्ज़ाक जैसी किताबें दस-दस रुपयों में खरीदी थीं। ये किताबें भारत-सोवियत मैत्री और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के अंतर्गत उपलब्ध कराई जाती थीं।
रानी झांसी रोड स्थित पीपल्स पब्लिशिंग हाउस इन किताबों के वितरक थे और रादुगा प्रकाशन का सारा काम बाद में राजस्थान पीपल्स पब्लिशिंग हाउस को चला गया था।

शायद आपको भी कुछ और टूटे तार मिलें इस जानकारी के बाद।

डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह said...

Really I wish to congritulate you for remembering good olden days of great Russian books.
My best wishes.
Dr.Bhoopendra

Vandan said...

न. नोसोव (निकोलाई नोसोव) की "स्कूली लड़के" ढूँढे से भी नहीं मिल रही। एक कॉपी थी, जिसे रिश्तेदार उठा कर ले गए... उन दिनों सोचा भी नहीं था कि दोबारा रादुगा की किताबें आसपास नजर भी नहीं आएँगी। राजस्थान वाले भाई लोगों ने भी अपनी असमर्थता जता दी। एकलव्य, भोपाल, से भी काफी गुजारिश की, मगर कोई लाभ नहीं हुआ। यदि किसी के पास हो तो कॉपीराइट की परवाह किए बिना किसी ब्लॉग में ही पोस्ट कर दे...

Vivek said...

१९७० के दशक में प्राइमरी स्कूल के दौरान बॉबी बोरिस और रॉकट एवं चूक और गेक मेरी फ़ेवरिट किताबें थीं । दोनों पुस्तकें ९० के दशक तक पढ़ते रहे । उसके बाद शायद फट गईं या क्या हुआ पता नहीं । पर इन कहानियों की याद अप्रतिम हैं। गाहे बगाहे अपनी बेटियों को ये कहानियाँ सुनाता रहता हूँ । गेक की शैतानियाँ और चूक का डिब्बा बाहर फैंकना, बक्से में घुस कर सो जाना और रेलगाड़ी के पहियों का गाना अभी तक नहीं भूला है। दरअसल ये मेरे बचपन की याद है जो असल में कभी वापिस नहीं आने वाला ।