चोरी
इन दो अनुभवों से पहले अपने एक रिश्तेदार के साथ मुझे बीडी पीने का शौक़ हो गया था. मेरे काका को बीडी पीने की आदत थी. अतएव उन्हें और दूसरों को धुआँ निकालते देखकर हमें भी बीडी फूँकने की इच्छा हो आई. गाँठ में पैसे थे नहीं, इसलिये काका बीडी के जो ठूँठ फेंक दिया करते थे, हमने उन्हें चुराना शुरू किया.
लेकिन ठूँठ भी हर समय मिल नहीं सकते थे. इसलिये नौकर की गाँठ से जो दो-चार पैसे होते, उनमें से बीच-बीच में एकाध चुरा लेने की आदत डाली, और हम बीडी ख़रीदने लगे. किंतु हमें संतोष न हुआ. अपनी पराधीनता हमें खलने लगी. इस बात का दुख रहने लगा कि बडों की आज्ञा के बिना कुछ हो ही नही सकता. हम उकता उठे और हमने आत्महत्या करने का निश्चय किया.
हम दोनो जगल मे गये और धतूरे के बीज ढूंढ लाये. शाम का समय खोजा. केदारजी के मदिर की दीपमालिका मे घी चढाया, दर्शन किये और एकांत ढूंढा. लेकिन ज़हर खाने की हिम्मत न पडी. अगर फ़ौरन ही मौत न आई तो? मरने से लाभ ही क्या? पराधीनता को ही क्यों न सहन किया जाय? फिर भी दो-चार बीज खाए. और अधिक खाने की हिम्मत ही न हुई. दोनों मौत से डरे और तय किया कि रामजी के मंदिर में जाकर और दर्शन करके शांत हो जाना और आत्महत्या की बात को भूल जाना है.
(पृष्ठ 12, तब गाँधीजी की उम्र 12-13 साल थी और शुरू में जिन दो अनुभवों की बात उन्होंने की है उनमें मांसाहार और वेश्यावृत्ति है)
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किताब का नाम: गांधीजी की संक्षिप्त आत्मकथा
संक्षेपकार: मथुरादास विक्रमजी
अनुवादक: काशिनाथ त्रिवेदी
प्रकाशक: नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद
मुद्रक: जीवणजी डाह्याभाई देसाई
नवजीवन मुद्रणालय, अहमदाबाद
सस्ती आवृत्ति अक्टूबर, 1952
मूल्य: बारह आना
कुल पृष्ठ: 260
आकार: पौने पांच इंच X सात इंच
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