व्यंग्यकारों की परंपरा हिंदी में लंबी है, भले ही उसमें क्वालिटी के लोग तुलनात्मक रूप से कम हों। लेकिन बिना विकृतियों का बाजार लगाए लोगों को सहज रूप से अपने लेखन से हंसने को मजबूर कर देने वाले हास्यकार तो यहां शायद उंगलियों पर गिने जाने लायक ही हों। जीपी श्रीवास्तव की जगह इस मामले में मेरी नजर में बहुत ऊंची है, हालांकि हिंदी की नई पीढ़ी में ज्यादातर लोगों को शायद उनका नाम भी नहीं पता होगा। काफी लंबे अंतराल पर उनके दो उपन्यास (एक दस-बारह साल की उम्र में और दूसरा उन्तीस-तीस की) मेरे हाथ लगे थे।
बाद वाले का नाम नहीं पता। सिर्फ विश्व भाषा सम्मेलन (जो इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है) में गए भारत के दो साहित्यकारों- गिचपिचनाथ भोंपू और श्री च्यमगादुड़म के नाम मुझे याद हैं। पहली किताब, जिसका एक-एक पैरा पढ़कर हम लोग हंसते-हंसते लोटपोट हो जाते थे, जीपी श्रीवास्तव की 'लंबी दाढ़ी' है। यह एक हॉस्टल में पढ़ रहे कुछ शरारती किशोरों की कथा है, जिन्होंने अपने वार्डन, स्टाफ और अध्यापकों की नाक में दम कर रखा था, और हर शरारत इतने सलीके से करते थे कि किसी में भी उन्हें फंसा पाना नामुमकिन रहता था। किताब की शुरुआत में किन्हीं गुणग्राहक के लिखे एक शेर की एक पंक्ति भी याद है- अच्छी बातें भी बताती है, हंसाती भी है, बड़ी मासूम बड़ी नेक है लंबी दाढ़ी।
हाल में भोजपुरी की अग्रणी पत्रिका 'भोजपुरी साहित्य' में जीपी श्रीवास्तव का लिखा एक भोजपुरी नाटक पढ़ते हुए मन में हुआ कि बचपन के अपने इस सबसे प्रिय साहित्यकार के बारे में कुछ दरियाफ्त किया जाए। मैंने इसके संपादक प्रो. अरुणेश 'नीरन' जी से बात की, जो मेरे एक दोस्त के पिता होने के अलावा एक प्रतिष्ठित साहित्य समालोचक भी हैं। उन्होंने जीपी श्रीवास्तव के बारे में कई मजेदार बातें बताईं। लेकिन इस उपन्यास के प्रकाशक और इसकी प्रकाशन तिथि जैसी कुछ जरूरी जानकारियां उनसे हासिल करना मुझसे उस वक्त नहीं हो पाया। नीरन जी देवरिया में रहते हैं और जल्द से जल्द इस बारे में जानकारी जुटाकर मैं यहां देने का प्रयास करूंगा। तबतक किसी और मित्र को पता चल जाए तो उसे यहां डाल दें।
Thursday 6 December, 2007
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2 comments:
हम भी इस जानकारी की प्रतीक्षा करेंगे । अच्छा हास्य लिखना हरेक के बूते की बात नहीं है ।
घुघूती बासूती
यहाँ हास्य और व्यंग्य के बीच स्थिति स्पष्ट की जाए |
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