Friday, 25 January 2008

नए चीन में दस दिन

गहरे पैठने वाले हिंदी कवि-समालोचक गिरधर राठी की लिखी यह किताब करीब दस साल पहले मेरे हाथ लगी थी। किताब दिलचस्प थी लेकिन पता नहीं क्यों तब पूरी पढ़ नहीं पाया था। इधर ओलंपिक और प्रधानमंत्री की यात्रा की वजह से चीन चर्चा में आया तो पढ़ना शुरू किया, और अब हालत यह है कि रात में किताब छोड़कर सोने जाने में तकलीफ होती है। यह किताब 1993 में प्रख्यात कन्नड़ लेखक और समाजवादी चिंतक यूआर अनंतमूर्ति के नेतृत्व में दस दिन के लिए चीन गए भारतीय लेखकों के एक प्रतिनिधिमंडल के प्रेक्षणों का नतीजा है।

खुद गिरधर राठी की ख्याति उनकी खुली नजर और लोकतंत्र के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के लिए की जाती है। वाम भविष्य में उनकी रुचि जरूर है लेकिन आपातकाल में जेल काट चुके राठी जी कम्युनिस्ट ढांचे के व्यक्ति नहीं हैं। इससे लगाव और विलगाव का वह संतुलन इस किताब में साफ नजर आता है, जो चीन जैसे दूर हो चले नजदीकी देश के गहरे प्रेक्षण के लिए जरूरी है। एक कविसुलभ सहज मानवीय दृष्टि इस किताब में हमें पंद्रह साल पहले के चीन के ऐसे कई पहलू दिखाती है, जो गहरी समझ वाले अकादमिक मिजाज के नामी अंग्रेजी लेखकों की पकड़ में नहीं आ पाते।

मसलन, उस समय साइकिलों की बहुलता वाले चीनी शहरों में तेजी से अपनी पैठ बना रही कारों के डगमग से शक्ति-संतुलन के बारे में। राठी को वहां राजधानी में एक लाल बत्ती पर कार वाले का गिरेबान थामे साइकिल वाला और उनके बीच तत्तो-थंभो करा रहे ट्रैफिक पुलिस वाले दिखे। इसके दो-तीन दिन बाद पेइचिंग में ही उन्होंने कारों के लिए रिजर्व कर दी गई एक सड़क पर एक साइकिल वाले को पुलिस की डांट खाते हुए भी देखा।

1993 में चीन में सन् 2000 का ओलंपिक पेइचिंग में आयोजित कराने का अभियान चल रहा था जो अंततः कामयाब नहीं हुआ। चीन को ओलंपिक कराने का मौका जरूर मिला लेकिन 2008 का। एक तरह से यह अभियान 1992 से 2008 तक की निरंतरता में बना रह गया। किस मायने में यह अभियान दिल्ली में चल रहे बिल्डर-प्रायोजित कॉमनवेल्थ-2010 खेलों के आयोजन से मिलता-जुलता है और किस मायने में उससे अलग है, इसका एक अंदाजा भी राठी की किताब पढ़ने से लगता है।

किताब का सबसे गहरा पहलू है चीन में कविता, कला-संस्कृति की स्थिति के बारे में की गई पड़ताल, जिसके जरिए बाकायदा एक तरह का चीन-मंथन सामने आता है। जनपक्षी लोकतंत्र के पक्षधर कवि के लिए यह बाह्य प्रेक्षण से ज्यादा एक आंतरिक प्रश्न-प्रतिप्रश्न जैसा है। इस दौरान सर्वहारा तानाशाही की बर्बरताओं की ही नहीं, भारत जैसे पूंजीवादी लोकतंत्र की अंतरात्मा में मौजूद संस्कृतिकर्म की आपराधिक उपेक्षा की छानबीन भी चलती रहती है। भारत की तरह ही चीन भी विराट ऐतिहासिक स्मृतियों और उनसे अर्जित विवेक वाला समाज है। 'बुद्धिमान अपनी गलतियों से सीखता है, अधिक बुद्धिमान दूसरों की गलतियों से' जैसी सूक्तियां वहां पग-पग पर बिखरी पड़ी हैं।

छपने के बाद से ही उपेक्षा की शिकार 'नए चीन में दस दिन' हिंदी के पाठकों के लिए पेइचिंग ओलंपिक के इस साल में चीन को ज्यादा नजदीकी से समझने का जरिया बन सकती है। दिल्ली के किताबघर प्रकाशन से छपी यह किताब अभी बाजार में उपलब्ध है या नहीं, इसका पता करना पड़ेगा।