Thursday, 16 October, 2008

तिलकुट-हिलकुट

जय गोविन्‍दम्, जय गोपालम्
जय अकालम्, जय अकालम्.

गली-गली में शोर है
अदिगवा बुकरचोर है.

बुकर खरी का बोरा है
निजविभोर रस-होरा है.

चिरकुटई चापाकल महानद कहाया
संवेद-दलिद्दर करिखा मगध सजाया.

Sunday, 24 August, 2008

इसे रात मत कहो

डोंट कॉल इट नाईट

लेखक: अमोस ओज़

प्रकाशक: विंटेज

उन्नीस सौ नवासी नेगेव डेज़र्ट , तेल केदार .... गर्मियों का मौसम । छोटा सा सेटलमेंट । लम्बे समय तक साथ रहने वाले साठ साल के सिविल इंजीनियर थियो और उनसे काफी छोटी स्कूल टीचर नोआ के बीच का बिखरता टूटता प्रेम संबंध । नोआ का छात्र इमानुएल की मुश्किल समय में अचानक मौत और उससे आये तूफान को झेलता तेल केदार का समुदाय और उस तूफान के बीच में नोआ और थियो ।

अमोस ओज़ के कहन में नाज़ुक बारीकी है , शाम का धूसर धुँधलाया रंग है , एक चटक उदासी है , रेगिस्तान का विस्तार है । जैसे बीती रात के अँधेरे में किसी खराशदार आवाज़ की संगत में किसी तकलीफ भरी दास्तान का बिना उतार चढ़ाव किस्सा हो , जब समय का हिसाब न हो , जब उँगली बढ़ाकर आप लोगों को छू सकें , उनकी तकलीफ अपनी आत्मा पर महसूस कर सकें । ऐसी ही कहानी अमोस कहते हैं । उलझती महत्त्वकांक्षा का, टूटते संबंधों का , छोटे कस्बे के आम जीवन का , मन के अंतरलोक का । और इतने प्यार से कहानी कहते हैं , इतने नज़ाकत से , ऐसे सरल हास्य से कि संबंध की बुनावट अपने हरेक परत और रेशे में जितनी उजागर होती है उतनी ही गोपन भी होती जाती है ।

अमोस ओज़ के बारे में:



और इसका एक पन्ना सुनिये:



एक और:



( कोना बहुत दिनों से खाली था । फिर लगा कि किसी भी किताब की चर्चा की जाये । रविन्द्र व्यास ने वेब दुनिया में किताबी कोना के बारे में लिखते हुये गीत चतुर्वेदी की टिप्पणी से समापन किया था ..जो सही लगा । तो हिन्दी न सही अंग्रेज़ी या कोई और भाषा ही सही ..लिखें हमसब ..सन्नाटे को तोड़ते रहें .. बताते रहें कि पढ़ाई है निरंतर )

Tuesday, 15 April, 2008

भीष्म साहनी की "मेरे साक्षात्कार"


किसी भी लेखक की रचनायें ही लेखक का प्रतिनिधित्व करतीं है लेकिन उक्त लेखक से जुड़े संस्मरण, रचना यात्रा, निजी संघर्ष भी लेखक की रचनाओं से कम नहीं होता. रेणु जी की रचनावली या परसाई जी की रचनावली में हम सिर्फ उनकी रचनाओं से ही परिचित नहीं होते बल्कि उस समूचे कालखंड की यात्रा कर डालते हैं.

भीष्म साहनी के विभिन्न अवसरों पर लिये गये 27 साक्षात्कारों का संकलन मेरे साक्षात्कार हमें भीष्म साहनी की रचना यात्रा से परिचित कराता है.

बकौल भीष्म साहनी जी, "गप्प शप्प का अपना रस होता है. इस गप्प शप्प में हम सांस्कृतिक क्षेत्र में चलने वाले कार्य कलाप, लेखक के आपसी रिश्ते, उन्हें परेशान करनेवाले तरह तरह के मसले, उनके जीवन यापन की स्थिति, उनके आपसी झगड़े और मन मुटाव आदि आदि हमारी सांस्कृतिक गतिविधि से पर्दा उठाते है और हम लेखक को हाड़ मांस के पुतले के रूप में देख पाते हैं. लेखक अपनी इन कमजोरियों के रहते अपनी लीक पर चलता हुआ सृजन के क्षेत्र में कहीं सफल और कहीं असफल होता हुआ अपनी इस यात्रा को कैसे निभा पाता है, इसे हम उसके जीवन के परिप्रेक्ष्य में देख पाते हैं"

फैसला: जरूर जरूर जरूर पढ़िये.

किताब का नाम: "भीष्म साहनी : मेरे साक्षात्कार"
प्रकाशक: किताब घर 24 अंसारी रोड नई दिल्ली
वर्ष 1995
मूल्य रु.150.
आईएसबीएन: 81-7016-320-X

अरे, ओ तोप के पोपचिओ, सुनते हो, कान के बहरिओ?..

इस ब्‍लॉग के अपने आखिरी पोस्‍ट पर आयी एक प्रतिक्रिया के जवाब में भैया चंद्रभूषण ने ज़रा झल्‍लायी आवाज़ में हिंदी किताबी कोने की दिनों-दिन बेहाल होते हाल की शिकायत दर्ज़ करवायी थी.. और ग़लत नहीं करवायी थी.. इन गुज़रे चंद महीनों में अपने किताबी कोने की स्थिति कमोबेश वैसी ही हो चली है जैसे छोटे शहरों में (या कहें, अब तो हर जगह?) हिंदी किताबों की दुकान पर उपलब्‍ध साहित्यिक दोने में जैसे सुख कम, टोटके और टोने ज़्यादा मिलते हैं.. तो कुछ उसी अंदाज़ में बीच-बीच में हम कुछ टोने-टोटकों से किताबी कोने को जियाये हुए हैं.. इस तरह किताबी कोना जीता रहेगा, मगर कुछ उसी तरह जीता रहेगा जैसे बहुत सारे राष्‍ट्रीयीकृत बैंकों की सालाना हिंदी पत्रिकाएं जीती रहती होंगी?..

लेकिन अपने हिंदी किताबी कोने की इस कछुआ चाल की आखिर दिक़्क़त क्‍या है? दस जो यहां घोषित तोपची दिख रहे हैं, और सब किताबों को लेकर उत्‍साहित रहनेवाले जीव हैं, हुआ क्‍या है सबने किताबें पढ़नी बंद कर दी हैं? या ऐसा गुप्‍त साहित्‍य पढ़ रहे हैं कि उसकी इस ब्‍लॉग पर चर्चा से उनके पसीने छूटने के ख़तरे होंगे? या कि दिक़्क़त सचमुच यह है कि बेर-अबेर जब कभी पढ़ना हो ले, ज़रूरी नहीं कि पाठ्य-सामग्री हिंदी की होती हो? भई, ऐसी मुश्किल में माफ़ कीजिएगा मैं खुद के अनुभवों से सामान्‍यीकरण करने को मजबूर हो रहा हूं, सो कर रहा हूं- कि अपना पढ़ना तो होता रहता है मगर ज़रूरी नहीं कि हिंदी में होता हो. कुछेक महीनों से जो बारह-पंद्रह किताबों की संगत चल रही है उसमें हिंदी की सिर्फ़ एक किताब है, अमृतलाल नागर का उपन्‍यास- खंजन नयन, और उसका वाचन भी अटक-अटक कर ही चल रहा है..

तो भइय्या, हिंदी किताबों के लाड़ले प्‍यारे तोपचियो.. व ढिंढोरचियो.. सच्‍चायी और समस्‍या यह है कि आप, हमारी तरह, हिंदी में ख़ास कुछ पढ़ ही नहीं रहे हैं? भइय्या लोगो, समस्‍या अगर यह है तो सीधे-सीधे कहते, ब्‍लॉग के नाम से हम ‘हिंदी’ कबार कर उसे महज़ ‘किताबी कोना’ बनाये दिये होते? क्‍योंकि दिलअज़ीज़ दोस्‍तो, जीवन में क्रियात्‍मक नहीं तो कुछ ज्ञानात्‍मक गतिविधि चलती तो रहे? अब जैसे क्रिस हरमन के लिखे इसी इतिहास की किताब को लीजिए, भारी किताब पौने चार सौ की दिखी तो कम से कम एक चौथाई अपने काम की होगी सोचकर जिज्ञासावश मैंने उठा लिया, घर लौटकर उलटना-पुलटना शुरू किया तो एकदम से प्रसन्‍न हुआ कि यह तो मज़ेदार चीज़ निकली, भई! कोई अनुवादक प्रेमिका होती तो उसे चट् से कहता इसे हिंदी में तैयार करने के लिए जुट जा, कि कुछ ज्ञानात्‍मक देहातियों का भला हो? ख़ैर, वह बाद की बात है, फ़ि‍लहाल अभी आपको सूचित तो कर ही रहा हूं, दिल्‍ली या जहां कहीं ऑरियेंट लॉंगमैन की किताबें लहा सकते हैं, बाबू क्रिस हरमन की ‘अ पीपुल्‍स हिस्‍टरी ऑव द वर्ल्‍ड’ का पता कीजिए और पौने चार सौ खर्च करके न केवल घर ले आइए, बल्कि जल्‍दी पढ़कर निपटा भी डालिये! मज़ेदार है, आपने उत्‍साह दिखाया तो जल्‍दी उसके एक-दो हिस्‍सों से क्‍वोट भी यहां चढ़ाता हूं..

बाकी एक दूसरे काम की, मेरे, चीज़ यह है कि एक फ्रांसीसी, ज़रा अनकन्‍वेंशनल, इतिहासकार नज़र पर चढ़े हैं, मगर उनकी किताबें हाथ नहीं चढ़ रही.. किसी तरह आपके हाथ चढ़ सकती हो तो कृपया मुझ गरीब को सूचित करें..

और इस ‘हिंदी’ और ‘किताबी’ और ‘कोने’ का ठीक-ठीक क्‍या करना है ज़रा ठीक-ठीक बतायें.. कहां हो, भइय्या यूनुस मियां.. और पीरहरंकर भैयाजी?.. ऐसे जनता की लाइफ़बेरी चलाइएगा आप लोग? कुछ शरम-टरम है कि नहीं? कि अप्रैल की गरमी में उसको भी रूह-अफज़ा के शरबत में धोकर पी गए हैं?..

Wednesday, 9 April, 2008

कौन देस से 'देशनिकाला'

फिल्मी दुनिया के इर्दगिर्द बुनी गई रचनाएं हिंदी में ज्यादा नहीं हैं और जो हैं वे सहज नहीं हैं। सुरेंद्र वर्मा की 'मुझे चांद चाहिए' हिंदी में अबतक सुपरहिट गए कुछ चुनिंदा उपन्यासों में गिनी जाती है। इसे शास्त्रीयता और सड़क के बीच का एक पुल भी बताया गया, लेकिन दस साल बाद यदि इसका पुनर्पाठ करें तो आश्वस्ति भाव कम हो जाता है। बहुत सारे स्टीरियोटाइप्स को लेसने वाली मठारी हुई भाषा, जो श्रीलाल शुक्ल की 'राग दरबारी' और मनोहर श्याम जोशी की 'कुरु-कुरु स्वाहा' के बाद खुद को शेष कर चुकी है। आप पढ़ते हैं और पाते हैं कि उपन्यास में दूसरी बार खोजने के लिए कुछ भी नहीं है। छिटपुट कुछ और उदाहरण लिए जा सकते हैं लेकिन हिंदी मनोजगत में सिनेमा का जितना बड़ा दखल है, उस हिसाब से साहित्य में कैंड़े का कुछ भी मौजूद नहीं है।

धीरेंद्र अस्थाना के 'नया ज्ञानोदय' में प्रकाशित हालिया उपन्यास 'देशनिकाला' से यह कमी पूरी होती है, सो बात नहीं है। कायदे से संबोधित भी होती है या नहीं, यह बात भी पूरे भरोसे के साथ नहीं कही जा सकती। लेकिन एक 'लार्जर दैन लाइफ' दुनिया को उसके औसत कद में आम इन्सानी नजर से देख पाने की संभावना इस उपन्यास में जरूर मौजूद है। फिल्मी दुनिया इस किताब में महज एक पृष्ठभूमि की तरह मौजूद है, ठीक वैसे ही जैसे मुंबई शहर की जीवंतता। लेकिन पैसे और महत्वाकांक्षा का एक महाभंवर जब आपको खींच रहा होता है, तब भी दुनिया की और किसी भी जगह की तरह आप अपना स्वतंत्र अस्तित्व कैसे बनाए रख सकते हैं, इस नोडल प्वाइंट की खोजबीन इसे फिल्मी दुनिया के शरीर के बजाय इसकी आत्मा के ज्यादा करीब ला देती है।

अगर कोई इस उपन्यास में हकीकत खोजने चले तो उसे हताशा हाथ लगेगी। शोभा डे अपने उपन्यासों में जिस दुनिया को पछीट-पछीट कर धोती हुई अपने पूरे रचनाकर्म को ही कमोबेश एक धोबीघाट बना देती हैं, वह दुनिया इसमें कहीं नजर नहीं आती। उसका टुच्चापन, उसकी गलाजत, उसके महिमामंडित मनोरोग इस उपन्यास की विषयवस्तु को कहीं से छूते तक नहीं। इन सारी चीजों की उपस्थिति इसमें सिर्फ इतनी है कि ये शहर को तीन तरफ से घेरे समुद्र की तरह बिना नजर आए दूर ही दूर से अहर्निश हरहराती रहती हैं। न इनकी कहीं निंदा होती है, न स्तुति की जाती है। ये यहां वैसे ही हैं, जैसे दिल्ली में नेताओं की नेतागिरी और दलालों की दलाली- हवा की तरह ज्यादा तंग किए बगैर चौगिर्द बहती हुई।

कहानी कभी रंगमंच से जुड़े चालीस के लपेटे में चल रहे एक युगल की है, जो कुछ दिन लिव-इन में साथ रहने के बाद फिलहाल अलग-अलग रह रहे हैं। नायिका स्टेज के बरक्स फिल्मी दुनिया को अग्राह्य नहीं मानती, हालांकि वहां कुछ शुरुआती टपले खा लेने के बाद एक अर्से से वह ट्यूशन पढ़ाने में मुब्तिला है। जबकि नायक अपने आदर्शवाद में कुछ दिन और रंगमंच के लपेटे में रहकर फिलहाल फिल्मों की स्क्रिप्ट राइटिंग में हाथ आजमा रहा है। बीच-बीच में दोनों का मिलना-जुलना भी हो जाता है, लेकिन रिश्तों में गर्मी नहीं पैदा होती। संयोग से एक बार नायक की एक कोई चीज फिल्मी दुनिया के एक नए फार्मूले में अंट जाती है और जिंदगी की राह रवां हो जाती है।

नायक के हाथ में दो पैसे आते हैं तो उसे वारिस की चिंता सताती है। नायिका को फोन करता है तो उसे शुरू में यह बेतुकी सी बात लगती है। लेकिन संयोग ऐसा कि उसी समय किसी और नए फार्मूले में उसके अभिनय के लिए भी जगह निकल आती है। सारा किस्सा किसी परीलोक जैसा है। इधर फिल्म मिलती है उधर इसी खुशी में वह मां बनने की राह पर निकल पड़ती है। करीअर या बच्चा जैसे घनघोर दुविधा वाले कुछ क्षण भी आते हैं लेकिन यह टकराव जानलेवा नहीं बनता। फिल्मी दुनिया में अब बाल-बच्चेदार हीरोइनों के लिए भी गुंजाइश बनने लगी है। अपनी दूसरी फिल्म में ही, जब वह प्रसिद्धि और उत्कृष्टता के चरम पर होती है, तो उसे छोड़कर वह अपने ट्यूशनों और अपनी बेटी की दुनिया में ही मगन रहने का फैसला लेती है।

एक समय का आदर्शवादी नायक अब फिल्मी दुनिया की अंतरंग महफिलों और राजनीति का हिस्सा बन चुका है। नायिका का फैसला उसे अहमकाना लगता है। साथ रहने की संभावना एक बार फिर समाप्त हो जाती है और मां-बेटी अपने 'देशनिकाले' की लय तलाशती रह जाती हैं। (किसका देश और काहे का देशनिकाला? जब फिल्मी करीअर के चरमोत्कर्ष पर उसे छोड़ देने जैसा बड़ा फैसला नायिका द्वारा लिया जा चुका है और अपनी मर्जी का एक 'देस' उसने पहले से ही रच रखा है तो खामखा रोने-बिसूरने के लिए इसे देशनिकाले का नाम देना जबर्दस्ती की नारीवादी ज्यादती नहीं तो और क्या है?)

एकबारगी लगता है कि इस उपन्यास में यथार्थ के बरक्स फैंटेसी कुछ ज्यादा ही हावी हो गई है। कहीं यह मुंबई फिल्म उद्योग की बेरहम दुनिया का महिमामंडन तो नहीं? लेकिन इन्सानी फैसलों को अगर इन्सानी दुनिया से जुड़ी किसी भी कहानी का मूल तत्व समझा जाए तो इस उपन्यास के कुछ बड़े मायने भी बनते हैं। सकारात्मक बातें इससे ज्यादा नहीं की जा सकतीं। क्लासिकी, बल्कि श्रेष्ठतर रचनाओं की खासियत मानवीय निर्णय और मानवीय नियति के जिस टकराव में खोजी जाती है, उसे निबाहने का धैर्य इस रचना में (सिरे से न भी सही तो) लगभग नदारद है।

निजी बातचीत में लेखक इस अधैर्य के लिए कुछ लेखकीय उलटबांसियों और कुछ प्रकाशकीय दबावों को जिम्मेदार ठहराते हैं। यह उपन्यास दरअसल राजेंद्र यादव और धीरेंद्र अस्थाना के साझा प्रयास के रूप में लिखा जाना था। अपने हिस्से के दस-बारह पन्ने लिखकर राजेंद्र जी ने दिल्ली से धीरेंद्र जी के पास मुंबई भेजे भी लेकिन वहां जिस मुकाम से रचना आगे बढ़ी उसका कोई तरल संबंध शुरुआती हिस्से के साथ नहीं बन पाया (वैसे भी 'तरल' संबंध रचनाकारों में संध्याकालीन सभाओं के दौरान जितनी आसानी से बन जाते हैं उतनी आसानी से रचनाओं के बीच कहां बन पाते हैं)।

फिर हारकर धीरेंद्र जी को शुरुआती हिस्सा भी नए सिरे से लिखना पड़ा। इधर 'नया ज्ञानोदय' के संपादक रवींद्र कालिया उपन्यास छपने की तिथि घोषित कर चुके थे, लिहाजा जो 'फाइनल ड्राफ्ट' तबतक बन पाया था वह पत्रिका के पैंतालीस पृष्ठों में छप गया। रचना इस रूप में भी दिलचस्प है। भाषा में पत्रकारिता की रवानी है (मुंबई की महाबरसात की महा-रिपोर्टिंग इस प्रस्थापना की पुष्टि कुछ ज्यादा ही शिद्दत से करती है) और अंतिम एक-दो पैराग्राफों को छोड़कर फिल्मी या साहित्यिक स्टीरियोटाइप भी कहीं नजर नहीं आते। लेकिन जबतक किताब के रूप में नहीं छपती तबतक इसे घर की लड़की घर में ही रहने जैसी बात समझा जाना चाहिए। पुस्तकीय रूप में आने तक अंतिम टुकड़े पर कुछ और काम कर लेने में मुझे कोई बुराई नहीं नजर आती।

Thursday, 13 March, 2008

एक पन्ने का मज़ा लीजिये ... सुनिये....

किताब का नाम : निकीता का बचपन
लेखक : अलेक्सई तोलस्तॉय
अनुवादक : मदन लाल 'मधु'
चित्रकार : व. कानाशेविच
प्रकाशक
: प्रगति प्रकाशन , मॉस्को
किशोर साहित्य पुस्तकमाला


यह किताब लेखक ने अपने बेटे निकीता अलेक्सेयेविच तोलस्तॉय को सस्नेह समर्पित किया है और अंतिम पन्ने पर प्रकाशक का एक संदेश है

पाठकों से
प्रगति प्रकाशन इस पुस्तक की विषय वस्तु , अनुवाद और डिज़ाईन संबंधी आपके विचारों के लिये आपका अनुगृहित होगा।
आपके अन्य सुझाव प्राप्त करके भी हमें बड़ी प्रसन्नता होगी। हमारा पता है

21 ज़ूबोव्स्की बुलवार
मास्को , सोवियत संघ


(अब ये पता , पता नहीं है भी कहीं )



खैर , इसके कुछ अंश का मज़ा लीजिये .... .




और ये भी .....

Friday, 25 January, 2008

नए चीन में दस दिन

गहरे पैठने वाले हिंदी कवि-समालोचक गिरधर राठी की लिखी यह किताब करीब दस साल पहले मेरे हाथ लगी थी। किताब दिलचस्प थी लेकिन पता नहीं क्यों तब पूरी पढ़ नहीं पाया था। इधर ओलंपिक और प्रधानमंत्री की यात्रा की वजह से चीन चर्चा में आया तो पढ़ना शुरू किया, और अब हालत यह है कि रात में किताब छोड़कर सोने जाने में तकलीफ होती है। यह किताब 1993 में प्रख्यात कन्नड़ लेखक और समाजवादी चिंतक यूआर अनंतमूर्ति के नेतृत्व में दस दिन के लिए चीन गए भारतीय लेखकों के एक प्रतिनिधिमंडल के प्रेक्षणों का नतीजा है।

खुद गिरधर राठी की ख्याति उनकी खुली नजर और लोकतंत्र के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के लिए की जाती है। वाम भविष्य में उनकी रुचि जरूर है लेकिन आपातकाल में जेल काट चुके राठी जी कम्युनिस्ट ढांचे के व्यक्ति नहीं हैं। इससे लगाव और विलगाव का वह संतुलन इस किताब में साफ नजर आता है, जो चीन जैसे दूर हो चले नजदीकी देश के गहरे प्रेक्षण के लिए जरूरी है। एक कविसुलभ सहज मानवीय दृष्टि इस किताब में हमें पंद्रह साल पहले के चीन के ऐसे कई पहलू दिखाती है, जो गहरी समझ वाले अकादमिक मिजाज के नामी अंग्रेजी लेखकों की पकड़ में नहीं आ पाते।

मसलन, उस समय साइकिलों की बहुलता वाले चीनी शहरों में तेजी से अपनी पैठ बना रही कारों के डगमग से शक्ति-संतुलन के बारे में। राठी को वहां राजधानी में एक लाल बत्ती पर कार वाले का गिरेबान थामे साइकिल वाला और उनके बीच तत्तो-थंभो करा रहे ट्रैफिक पुलिस वाले दिखे। इसके दो-तीन दिन बाद पेइचिंग में ही उन्होंने कारों के लिए रिजर्व कर दी गई एक सड़क पर एक साइकिल वाले को पुलिस की डांट खाते हुए भी देखा।

1993 में चीन में सन् 2000 का ओलंपिक पेइचिंग में आयोजित कराने का अभियान चल रहा था जो अंततः कामयाब नहीं हुआ। चीन को ओलंपिक कराने का मौका जरूर मिला लेकिन 2008 का। एक तरह से यह अभियान 1992 से 2008 तक की निरंतरता में बना रह गया। किस मायने में यह अभियान दिल्ली में चल रहे बिल्डर-प्रायोजित कॉमनवेल्थ-2010 खेलों के आयोजन से मिलता-जुलता है और किस मायने में उससे अलग है, इसका एक अंदाजा भी राठी की किताब पढ़ने से लगता है।

किताब का सबसे गहरा पहलू है चीन में कविता, कला-संस्कृति की स्थिति के बारे में की गई पड़ताल, जिसके जरिए बाकायदा एक तरह का चीन-मंथन सामने आता है। जनपक्षी लोकतंत्र के पक्षधर कवि के लिए यह बाह्य प्रेक्षण से ज्यादा एक आंतरिक प्रश्न-प्रतिप्रश्न जैसा है। इस दौरान सर्वहारा तानाशाही की बर्बरताओं की ही नहीं, भारत जैसे पूंजीवादी लोकतंत्र की अंतरात्मा में मौजूद संस्कृतिकर्म की आपराधिक उपेक्षा की छानबीन भी चलती रहती है। भारत की तरह ही चीन भी विराट ऐतिहासिक स्मृतियों और उनसे अर्जित विवेक वाला समाज है। 'बुद्धिमान अपनी गलतियों से सीखता है, अधिक बुद्धिमान दूसरों की गलतियों से' जैसी सूक्तियां वहां पग-पग पर बिखरी पड़ी हैं।

छपने के बाद से ही उपेक्षा की शिकार 'नए चीन में दस दिन' हिंदी के पाठकों के लिए पेइचिंग ओलंपिक के इस साल में चीन को ज्यादा नजदीकी से समझने का जरिया बन सकती है। दिल्ली के किताबघर प्रकाशन से छपी यह किताब अभी बाजार में उपलब्ध है या नहीं, इसका पता करना पड़ेगा।