इस ब्लॉग के अपने आखिरी पोस्ट पर आयी एक प्रतिक्रिया के जवाब में भैया चंद्रभूषण ने ज़रा झल्लायी आवाज़ में हिंदी किताबी कोने की दिनों-दिन बेहाल होते हाल की शिकायत दर्ज़ करवायी थी.. और ग़लत नहीं करवायी थी.. इन गुज़रे चंद महीनों में अपने किताबी कोने की स्थिति कमोबेश वैसी ही हो चली है जैसे छोटे शहरों में (या कहें, अब तो हर जगह?) हिंदी किताबों की दुकान पर उपलब्ध साहित्यिक दोने में जैसे सुख कम, टोटके और टोने ज़्यादा मिलते हैं.. तो कुछ उसी अंदाज़ में बीच-बीच में हम कुछ टोने-टोटकों से किताबी कोने को जियाये हुए हैं.. इस तरह किताबी कोना जीता रहेगा, मगर कुछ उसी तरह जीता रहेगा जैसे बहुत सारे राष्ट्रीयीकृत बैंकों की सालाना हिंदी पत्रिकाएं जीती रहती होंगी?..
लेकिन अपने हिंदी किताबी कोने की इस कछुआ चाल की आखिर दिक़्क़त क्या है? दस जो यहां घोषित तोपची दिख रहे हैं, और सब किताबों को लेकर उत्साहित रहनेवाले जीव हैं, हुआ क्या है सबने किताबें पढ़नी बंद कर दी हैं? या ऐसा गुप्त साहित्य पढ़ रहे हैं कि उसकी इस ब्लॉग पर चर्चा से उनके पसीने छूटने के ख़तरे होंगे? या कि दिक़्क़त सचमुच यह है कि बेर-अबेर जब कभी पढ़ना हो ले, ज़रूरी नहीं कि पाठ्य-सामग्री हिंदी की होती हो? भई, ऐसी मुश्किल में माफ़ कीजिएगा मैं खुद के अनुभवों से सामान्यीकरण करने को मजबूर हो रहा हूं, सो कर रहा हूं- कि अपना पढ़ना तो होता रहता है मगर ज़रूरी नहीं कि हिंदी में होता हो. कुछेक महीनों से जो बारह-पंद्रह किताबों की संगत चल रही है उसमें हिंदी की सिर्फ़ एक किताब है, अमृतलाल नागर का उपन्यास- खंजन नयन, और उसका वाचन भी अटक-अटक कर ही चल रहा है..
तो भइय्या, हिंदी किताबों के लाड़ले प्यारे तोपचियो.. व ढिंढोरचियो.. सच्चायी और समस्या यह है कि आप, हमारी तरह, हिंदी में ख़ास कुछ पढ़ ही नहीं रहे हैं? भइय्या लोगो, समस्या अगर यह है तो सीधे-सीधे कहते, ब्लॉग के नाम से हम ‘हिंदी’ कबार कर उसे महज़ ‘किताबी कोना’ बनाये दिये होते? क्योंकि दिलअज़ीज़ दोस्तो, जीवन में क्रियात्मक नहीं तो कुछ ज्ञानात्मक गतिविधि चलती तो रहे? अब जैसे क्रिस हरमन के लिखे इसी इतिहास की किताब को लीजिए, भारी किताब पौने चार सौ की दिखी तो कम से कम एक चौथाई अपने काम की होगी सोचकर जिज्ञासावश मैंने उठा लिया, घर लौटकर उलटना-पुलटना शुरू किया तो एकदम से प्रसन्न हुआ कि यह तो मज़ेदार चीज़ निकली, भई! कोई अनुवादक प्रेमिका होती तो उसे चट् से कहता इसे हिंदी में तैयार करने के लिए जुट जा, कि कुछ ज्ञानात्मक देहातियों का भला हो? ख़ैर, वह बाद की बात है, फ़िलहाल अभी आपको सूचित तो कर ही रहा हूं, दिल्ली या जहां कहीं ऑरियेंट लॉंगमैन की किताबें लहा सकते हैं, बाबू क्रिस हरमन की ‘अ पीपुल्स हिस्टरी ऑव द वर्ल्ड’ का पता कीजिए और पौने चार सौ खर्च करके न केवल घर ले आइए, बल्कि जल्दी पढ़कर निपटा भी डालिये! मज़ेदार है, आपने उत्साह दिखाया तो जल्दी उसके एक-दो हिस्सों से क्वोट भी यहां चढ़ाता हूं..
बाकी एक दूसरे काम की, मेरे, चीज़ यह है कि एक फ्रांसीसी, ज़रा अनकन्वेंशनल, इतिहासकार नज़र पर चढ़े हैं, मगर उनकी किताबें हाथ नहीं चढ़ रही.. किसी तरह आपके हाथ चढ़ सकती हो तो कृपया मुझ गरीब को सूचित करें..
और इस ‘हिंदी’ और ‘किताबी’ और ‘कोने’ का ठीक-ठीक क्या करना है ज़रा ठीक-ठीक बतायें.. कहां हो, भइय्या यूनुस मियां.. और पीरहरंकर भैयाजी?.. ऐसे जनता की लाइफ़बेरी चलाइएगा आप लोग? कुछ शरम-टरम है कि नहीं? कि अप्रैल की गरमी में उसको भी रूह-अफज़ा के शरबत में धोकर पी गए हैं?..
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
6 comments:
हम तो पहिले ही बोले थे लाल जी कि इसमें अंग़्रेजी भी डिसकस करने दें.आप नहीं ना माने.
हम कुछ हिन्दी किताबें पढ़ रहा हूँ.लिखता हूँ उन पर कभी.
हम जल्दी ही हाजिर होता हूं । चिंता मत कीजिए कान में धनिया नहीं बोया हूं ।
शर्म आ रही है . आ क्या रही है,आती ही जा रही है . गले तक बूड़ गया हूं शर्म के सैलाब में .
किताबी बाबू एबंग चंदू बाबू त्रुटि मार्जना कोरबेन . खमा कोरबेन . ताड़ाताड़ी किछु कोरबो .
-- पीरहरंकर
मार्के की बात. हिन्दी वाले तो किताब पढते ही नही.
किताबी लाल जी,
मैं इस ब्लॉग से जुड़ना चाहता हूं, कृपया मार्गदर्शन करें...
क्रिस हरमन की किताब का अनुवाद हो चुका है…प्रो लाल बहादुर वर्मा ने किया है संवाद के लिये
Post a Comment