“कहीं तो कुछ कमी रहनेवाले लोग अपने-आप जीने के स्तर को अधूरा मानकर उसके ऊपर कोई स्तर है क्या ढूंढ़ते रहते हैं. चांगदेव, नारायण, शंकर और नाम्या वगैरा छोकरे इसलिए रुचि ले-लेकर साहित्य, नाटक, सिनेमा पर बहुत ही अच्छा बोलते. बापू को एक अखबार में सिनेमा-नाटक पर लिखने का कॉलम मिल गया था. इसलिए वह भी अब इनके बीच कायम रहता. कोई तो एकाध दिन देशी ठर्रा ही पिलाता. नाक बन्द करके ही क्यों न हो लेकिन पीना चाहिए इस जिद से सब पीते और रात-भर बकते फिरते.
कभी गांजा पीते, कभी भांग, यह सब ऊपर का स्तर प्राप्त करने के आसान रास्ते थे. बम्बई में हर चीज आसानी से मिल जाती. और एक आसान तरीका था कागज और स्याही. इसलिए ज्यादातर लोग कुछ-न-कुछ लिखते रहते. प्रधान और बापू तो कॉलम लिख-लिखकर चारों तरु अग्रणी लेखक के रूप में विख्यात हो रहे थे. शंकर कहता इनको जो पब्लिसिटी मिलती है वही ज्यादा है. पैसे वगैरा मिले यह कामना तो उंगली पकड़कर पहुंचा पकड़ने जैसी है. बाकी सभी कलाएं महंगी होती गईं, इसिलिए यह साहित्य कला इन सबके चंगुल में फंस गई! सीधे-सादे लोग जब प्यार करते हें और जब उनका प्रेमभंग हो जाता है अच्छी सी कविताएं लिख जाते हैं. जीवन भर उतना एक गमला मन-ही-मन महकाते रहते हैं. फिर बम्बई के फुटपाथ पर चार आने में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करनेवालों की पचासों किताबें मिल जाती हैं. तब ये सब लोग निष्णात साहित्यकार तो होंगे ही.”
“हिन्दी फिल्में भी बीच-बीच में अच्छी होतीं. उस समय बर्मनदा भी जोश में थे. किशोरकुमार अपने फॉर्म में था ही. वहीदा रहमान भी बेहद जोश में थी. ऐसे में फेल्लिनी की फिल्म ला दोल्चे विता भी लगी थी. चांगदेव को अब सच्ची-झूठी दुनिया की मिलावट बहुत ही अद्भुत लगने लगी. सारी दुनिया से घृणा करते रहने की कोई वजह नहीं थी. क्योंकि इसी दुनिया में चार्ली चैपलिन है, सत्यजित और ऋत्विक है किशोरकुमार और आइएस जौहर है. वहीदा और गुरुदत्त हैं. अली अकबर और बड़े गुलाम हैं. अभी बिल्कुल इस घड़ी जिन्दा हैं. इन लोगों ने भी हमारे समान ही जीवन के स्वरूप को अवश्य ही जाना होगा. सच तो यह है कि यह जिन्दगी फेल्लिनी की फिल्मों जैसी मीठी जिन्दगी है. जीते रहना है जितने दिन मीठी मानकर चलना. गीत सुनते, किताबें पढ़ते, फिल्में देखते, हम भट्ठी की शराब पीते, सिगरेट फूंकते इस और उस दुनिया का मिश्रण कर जीते रहना. नूरजहां जैसे, मुहब्बत करें खुश रहें मुस्कराएं ऐसे कहकर नाचते-गाते हर पल जैसा है वैसा ही भोगते रहना. कड़वाहट मन में रखने से कम तो नहीं होती. कड़वाहट को अन्दर भींचकर ऊपर ऐसे फूल खिलाते रहना. आखिर हैं कितने दिन? सच तो यह है कि एक हद तक कड़वाहट को पचाए बिना जीवन इतना मीठा हो ही नहीं सकता. इसके अलावा बड़ी-बड़ी अनुभूतियों का आकलन भी नहीं होता. इसीलिए तो युद्धों से उबरे लोग महाभारत, इलियड लिख बैठे. सभी कलाकारों को कुछ-न-कुछ दुख होगा ही. मुझे भी है. इसीलिए तो इन कलाकृतियों का पूरा आकलन होता है. शंकर को भी कुछ-न-कुछ दुख होगा ही. वह मुझे बताता नहीं. मैंने भी तो उसे कहां बताया है?”
“..फिर से यह सब. फिर से दिन. फिर से फुर्र करते ही फूलनेवाले गुब्बारे जैसा जीवन छाती में.. मैं अब तक बड़ी उम्मीद से दुख सहता रहा अब बड़ी उम्मीद के साथ यह जीना भी जी लेंगे. जीवन के साथ सम्बन्ध तोड़ना नहीं- वह मजबूती के साथ जकड़ा रहता है. और हर चीज अगर प्रचंड बुरी है तो फिर अब सब खराब ही है यह मानकर खुशी के साथ जिया जाए. पहले मृत्यु का विकार आत्यन्तिक था, अब जीने का विकार आत्यन्तिक मानकर चलना. दोनों सिरे होश में रहकर देखना हो जाएगा. जंग के दिन खत्म अब आनन्दोत्सव.”
(मराठी में 1975, और हिन्दी में अनुदित होकर 2003 में राजकमल द्वारा प्रकाशित भालचंद्र नेमाडे के मशहूर उपन्यास 'बिढार' से सहज उत्साह में यहां-वहां से उठायी पंक्तियां)
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1 comment:
इसको पढ़ना सचमुच मन मीठा करना है ..
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