
किताब कैसी हो , सोचते ही लगता जैसे कोई पूरा जीवन हो , जिसमें ढेरों पगडंडियाँ हों , बीहड़ जंगल हो , कूँये से निकला मीठा जल हो , खारे आँसुओं की गमक हो , ठहरा हुआ मासूम सुख हो , छाती में धँसा दुख हो , राग हो रंग हो , छोटी छोटी मीठी बात हो , चुप्पी से उपजा गीत हो , शैतानी बदमाशी हो , सब हो । और सब ऐसे सरल प्रवाह में हो कि उसके पीछे की कारीगरी दिखे न । जैसे मंसूर का गायन । जैसे विलम्बित तान की तैयारी । जैसे बड़े ब्रश के बाद महीन पतले ब्रश से फाईनर स्ट्रोक देना । जैसे मीठा कोई तूम तूम तन ना का तराना । जैसे बरसात के दिनों के सीलेपन में सूखे कपड़ों का पहनना ।
ऐसे बदलाव को हाथ में थामे किसी धूप नहाये पोखर में नाक बन्द करके छलाँग मारने का तुक बनता नहीं था । कोथाय पॉबो तारे ? कहाँ पाऊँ उसे ? सात सौ पन्ने की किताब और अंत तक उसका नाम नहीं मालूम जिसकी कहानी है । न , कहानी कहना गलत है । जो जीवन में ऐसे धँसा बसा है कि जितना विलग है उतना ही रमा भी है । जीवन और मनुष्य और उसकी प्रकृति ..बस यही गीत है । समरेश बसु की ये किताब अद्भुत रस का स्वाद है । उस भोली ठहरी खुशी का एक बार फिर आस्वादन है । जब समय का ऐसा बोध हो कि समय ही न रहे , उसकी पाबंदी न रहे , ऐसे किसी दिन में , धूप से आँखे बचाये , बोलपुर , राढ़ प्रदेश , बक्रेश्वर जाने कहाँ कहाँ बाउलों की संगत में जीवन को समझना , स्त्री पुरुष के मन को समझना , डोंगी पर सवार , पानी के हिचकोलों की गोद में किसी अनजान गंतव्य की ओर बहते जाना ..ऐसा आनंद है , जहाँ न मिलने का दुख , खोजते पाने के सुख में डूब जाता है । इस किताब में कहानी जैसा कुछ नहीं है । इस किताब में कोई खेल नहीं है , शब्दों का कोई जादू नहीं है । कोई कहे कि एक हिस्सा पढ़ कर सुनाओ तो ऐसा कोई एक तीखा चमकीला जादू से भरा हिस्सा नहीं है । अनुवाद की वजह से एक क्वेंट सी बांगला मिश्रित हिन्दी है । स्त्री पुरुष के आपसी संबंध की अजीब गूढ़ और फिर उतनी ही सरल , एक स्तर पर पुरातन फिर तुरत दूसरे स्तर पर एकदम सब्लाईम और खुली परिभाषा है । फिर जीव और ईश्वर और प्रकृति की बात है । उस चीज़ की हुमक है जिसे परसीव कर पाने तक की समझ हो , खुशनसीबी है |
समरेश बसु की "कहाँ पाऊँ उसे" , भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है