Tuesday 25 December, 2007

फ़िल्मी सितारे

भाई अफज़ल ने आरएमआईएम पर कुछ दिन पहले एक ऐसी किताब का परिचय रखा था जिससे पता चलता है कि 1940 तक फिल्मों में काम करने वाली हीरोइनें कैसी थीं. किताब 1946 में हैदराबाद से छपी थी. उन्होंने उर्दू में लिखी इस किताब की भाषा बहुत अरबी-फारसीनिष्ठ बताई है और उसके कुछ हिस्से अपने अंदाज़ में अंग्रेज़ी में पेश किये हैं. मुझे यह किताब दिलचस्प लगी थी और सवाल आया था कि हिंदी में ऐसी किताब क्यों नहीं बनाई गयी.

परसों मेरे एक श्रोता ने मुझे ऐसी ही एक किताब दिखाकर मुझे चकित किया जो हालाँकि मूल अंग्रेज़ी किताब का हिंदी अनुवाद है.

किताब 116 पृष्ठों की है. इसका आकार है- 7.5" X 9.5" है. किताब के पन्ने अब टूट रहे हैं और इस हालत में इसका सहेजा जाना एक ख़ास श्रद्धा की गवाही देता है.

अंदर के पृष्ठ पर ऊपर लिखा है- फिल्मी सितारे और उसके नीचे लिखा है- भारत के प्रसिद्ध फिल्मी सितारों का चरित्र. लेखक हैं- हरीश एल. बुच और केरींग डोयल. अनुवादक- हरिशंकर और रवींद्रनाथ चतुर्वेदी हैं. 1957 में छपी यह किताब तब दो रुपये पचास नये पैसे में ख़रीदी जा सकती थी. प्रकाशक का नाम था- लाखानी बुक डीपो, गिरगाँव, बम्बई-4

इसमें प्रस्तावना लिखी है एस के पाटील ने, जो कि भारतीय चलचित्र उत्पादक सभापति बताए गये हैं. भूमिका लेखकों ने ही लिखी है.विषय सूची से ठीक पहले तीन विज्ञापन छपे हैं. पहला है- रामतीर्थ ब्राह्मी तेल,लंबे और सुंदर बालों के लिये उपयोग कीजिये, इसे बनाते है‍ श्री रामतीर्थ योगाश्रम, दादर बंबई. दूसरा है- फ़्लोरोज़ोन काले चर्म को सफ़ेद बनाता है और तीसरा है- मर्सीडीज़ और प्लेमैन फ़ाउंटेन पेन, जिसे फ़्रांस ट्रेडिंग कॊरपोरेशन, माहीम बम्बई, बेचते हैं.
किताब में तेइस फ़िल्मी सितारों के परिचयात्मक रेखाचित्र हैं और कोई पैंसठ दुर्लभ फ़ोटोग्राफ़्स हैं.
ये तेइस सितारे हैं- अशोक कुमार, उषा किरण, कामिनी कौशल, गीता बाली, जयराज, डेविड, दिलीप कुमार, दुर्गा खोटे, देव आनंद, नरगिस, नलिनी जयवंत, निम्मी, निरुपा राय, नूतन, बलराज साहनी, मधुबाला, बीना राय, मनहर देसाई, मीना कुमारी, मोतीलाल, राजकपूर, वैजयंती माला और सुरैया.
कवर का नमूना (कवर डिज़ाइन किया है)-एस जी परेलकर ने और फ़ोटोग्राफ़्स हैं- राज दत्त आर्ट्स, शांगीला, आर.जी.शाह इंडिया फ़ोटो, बी.जे.पांचाल, पूनम प्रेस फ़ोटो और देवरे एंड कंपनी के.

मैं यहां इस किताब से एक अंश प्रस्तुत करता हूं-
"...बम्बई के विलसन कॉलेज और ख़ालसा कॉलेज में विज्ञान पढने के बाद उन्होंने अपनी रोज़ी स्वयं पैदा करने का विचार किया. उन्होंने सोचा कि केवल परिवार का ही व्यवसाय नहीं अपनाना चाहिये, वरन किसी नये व्यापार पर हाथ आज़माना चाहिये.

बम्बई छोडकर नये व्यवसाय की खोज में वे पूना चले गये और ब्रिटिश फौज में कैंटीन मैनेजर का काम सँभाला. लडाई के दिन थे और सिपाहियों के साथ ने ख़तरनाक जीवन अपनाने की उनकी भावना को कुछ राहत दी. पर शुरू में उन्हें 35 रुपये महीने दिये गये. पर वह उसी से चिपके रहे और शीघ्र ही फौजी मेस में एक उपहार-गृह चलाने का ठेका मिल गया. उसमें व्यापार बडा अच्छा था, यहाँ तक कि तीसरे महीने में उन्होंने 800 रुपये पैदा कर डाले. यह ठेका एक साल चला, क्योंकि फौजी राशन स्कीम चालू होने पर वह समाप्त कर दिया गया. काफी रकम जमा करने के बाद वह बंबई में फिर वापस आ गये.

उन दिनों बम्बई टॉकीज़ के कार्यकर्ता नये अभिनेताओं की तलाश में थे और उनकी प्रधान- देविका रानी ने दोनों ने ही नैनीताल में एक मित्र के द्वारा सुंदर, सुडौल, यूसुफ का परिचय प्राप्त कर लिया था. वह उनसे इतनी प्रभावित हुई कि आवश्यक परीक्षा के बिना ही उन्हें नियुक्त कर लिया और बॉम्बे टॉकीज़ की 'ज्वारभाटा' में नयी हीरोइन मृदुला के साथ अभिनय का अवसर दिया. झिझक के साथ इस प्रस्ताव से वह सहमत हो गये, क्योंकि फिल्मी वृत्ति अपनाने की उनकी कोई इच्छा नहीं थी.

चित्रपट के लिये उनका नाम रखने का प्रश्न भी बॉम्बे टॉक़ीज़ के सामने अब उपस्थित हुआ और 'जहाँगीर', 'वासुदेव' और 'दिलीप कुमार' तीन नाम प्रस्तावित हुए. देविका रानी ने तीसरा नाम पसंद किया, यद्यपि यूसुफ खान दूसरे दोनों नामों में से एक चाहते थे..."

पुस्तक के अध्याय दिलीप कुमार से, पृष्ठ संख्या 38-39

यहीं पर एक फोटो है जिसमें दिलीप कुमार सेट पर ब्रेक के बीच गोल दामन की कमीज़ और पैजामा पहने हुए बल्लेबाज़ी कर रहे हैं और मुकरी विकेटकीपरी कर रहे हैं.

Friday 14 December, 2007

बॉबी बोरिस के साथ जहान की सैर

बचपन में बच्चों वाली पढ़ी किताबें याद करने बैठें तो हिन्दी में बेहद उम्दा रूसी किताबों का अनुवाद याद आता है , मिश्का का दलिया , निकिता का बचपन और बॉबी बोरिस और रॉकेट । पहली दो किताबों के लेखक शायद श्री अ नोसोव हैं ( अ माने क्या ? अलेक्सान्द्र ? पर जहाँ तक याद है नाम में सिर्फ अ ही था , खैर ) बॉबी बोरिस के तो लेखक तक का नाम याद नहीं , प्रकाशक और अनुवादक तो खैर नहीं ही , अब इसका इतना अफसोस , क्या कहें । पर भरपाई में कहानी लगभग पूरी याद है , कवर आँखों के सामने है , अंदर की शानदार छपाई और इलसट्रेशंज़ के तो क्या कहने । क्रीम कलर के चमकते कागज़ पर मन मोहने वाले पेंसिल स्केचेज़ ।

मिश्का और निकिता के क्रीम कैनवस का कवर और सीधे बड़े अक्षरों में , बिना लाग लपेट के लिखा नाम ,बॉबी बोरिस में पीपेनुमा रॉकेट से भौंचक आँखों ताकता झबरीला कुत्ता नीले आसमान में उड़ान भरता । बॉबी कुत्ते की आवारा भौंचक आँखें , रुसता फूलता हमारा अंवेशणकर्ता गेना और धीर गंभीर पर नटखट शरारती बोरिस और उनको दिनरात तंग करती जासूस लीदिया (या लुदमिला , ठीक याद नहीं ) ।. माँ को इमोशनल ब्लैकमेल करके दर्जन भर अंडे अपने किसी अनुसंधान के लिये माँगते गेना की दरवाज़े पर पेट के बल लटकने का रेखाचित्र अभी अभी आँखों के आगे कितना साफ लहरा गया । पिछले दो पन्नों पर उन कुत्तों की तस्वीर जो अंतरिक्ष में गये, लाईका , ओत्वाज़नाया और अन्य नाम जो अब याद नहीं ।

बॉबी बोरिस और रॉकेट , ये किताब दो दोस्तों की कहानी थी, बोरिस और गेना और बोरिस के कुत्ते बॉबी की। बोरिस और गेना दिनरात अनुसंधान में लगे रहते। एक पीपे को रॉकेट बनाकर और अपने प्यारे कुत्ते बॉबी को अंतरिक्ष यात्री बनाकर वे कोशिश करते हैं उसे अंतरिक्ष में भेजने की। प्रयास असफल रहता है और इसी क्रम में वे बॉबी को खो देते हैं। बहुत तलाशने के बावज़ूद वे उसे खोज नहीं पाते। इसी बीच घायल बॉबी को एक आवारा जानवरों के आश्रय में घर मिल जाता है। अंतरिक्ष में कुत्तों को भेजने का सरकारी अनुसंधान चल रहा है और कई ऊँची नस्ल के कुत्तों को आजमाने के बाद ये निष्कर्श निकलता है कि अंतरिक्ष यात्रा के लिये जिस तरह के धैर्य की जरूरत है वो सिर्फ आवारा कुत्तों में ही पाया जाता है। उसके बाद बॉबी की यात्रा "दिलेर" बनने की शुरु होती है। अंतरिक्ष से सफलता पूर्वक वापस आने पर टीवी पर बोरिस और गेना उसे पहचान लेते हैं और उनका सुखद मिलन होता है.।

किताब इतनी रोचक थी कि हम उसे कई बार पढ गये थे. शैली मज़ेदार थी और कहानी में बच्चों और कुत्तों की मानसिकता का इतना प्यारा वर्णन था कि कई बार बडी तीव्र इच्छा होती कि काश उन बच्चों सी हमारी जिंदगी होती। हमारा ज्ञान अंतरिक्ष के बारे में भी खासा बढ गया था और यूरी गगारिन, वैलेंतीना तेरेश्कोवा जैसे नाम हमारी ज़बान पर चढ गये थे । ये किताब शायद उस दौर में लिखी गई थी जब सोवियत संघ और अमरीका में दौड़ चल रही थी , अंतरिक्ष में पहली घुसपैठ किसकी हो , स्पूतनिक और अपोलो , चाँद और पहली अंतरिक्ष यात्रा ? वोस्तोक और सोयूज़ , जेमिनी और अपोलो ।
पठनीयता और प्रवाह के साथ अस्ट्रोनोमी और विज्ञान का ऐसा अद्भुत संसार इस किताब ने खोला कि हम हैरान । साईंस फिक्शन पढने का चस्का इसी किताब की देन है ।

(किताबी कोना पर इसे डालने का एक फायदा , क्या पता किसी ने इसे पढ़ी हो , उन्हें कुछ और डिटेल्स याद हों , इस किताब को फिर लोकेट किया जा सके । ऐसे ही आगे मिश्का का दलिया और निकिता का बचपन के बारे में भी लिखूँगी । फिर बाकी किताबें .. )

पुन : किताबी कोना हिन्दी किताबों का कोना है । बॉबी बोरिस और रॉकेट चूँकि हिन्दी में अनुदित है इसलिये मोहवश खींच खाँचकर इसे यहाँ डाल देने का पाप कर रही हूँ । क्षमाप्रार्थी हूँ ।

Thursday 6 December, 2007

लंबी दाढ़ी

व्यंग्यकारों की परंपरा हिंदी में लंबी है, भले ही उसमें क्वालिटी के लोग तुलनात्मक रूप से कम हों। लेकिन बिना विकृतियों का बाजार लगाए लोगों को सहज रूप से अपने लेखन से हंसने को मजबूर कर देने वाले हास्यकार तो यहां शायद उंगलियों पर गिने जाने लायक ही हों। जीपी श्रीवास्तव की जगह इस मामले में मेरी नजर में बहुत ऊंची है, हालांकि हिंदी की नई पीढ़ी में ज्यादातर लोगों को शायद उनका नाम भी नहीं पता होगा। काफी लंबे अंतराल पर उनके दो उपन्यास (एक दस-बारह साल की उम्र में और दूसरा उन्तीस-तीस की) मेरे हाथ लगे थे।

बाद वाले का नाम नहीं पता। सिर्फ विश्व भाषा सम्मेलन (जो इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है) में गए भारत के दो साहित्यकारों- गिचपिचनाथ भोंपू और श्री च्यमगादुड़म के नाम मुझे याद हैं। पहली किताब, जिसका एक-एक पैरा पढ़कर हम लोग हंसते-हंसते लोटपोट हो जाते थे, जीपी श्रीवास्तव की 'लंबी दाढ़ी' है। यह एक हॉस्टल में पढ़ रहे कुछ शरारती किशोरों की कथा है, जिन्होंने अपने वार्डन, स्टाफ और अध्यापकों की नाक में दम कर रखा था, और हर शरारत इतने सलीके से करते थे कि किसी में भी उन्हें फंसा पाना नामुमकिन रहता था। किताब की शुरुआत में किन्हीं गुणग्राहक के लिखे एक शेर की एक पंक्ति भी याद है- अच्छी बातें भी बताती है, हंसाती भी है, बड़ी मासूम बड़ी नेक है लंबी दाढ़ी।

हाल में भोजपुरी की अग्रणी पत्रिका 'भोजपुरी साहित्य' में जीपी श्रीवास्तव का लिखा एक भोजपुरी नाटक पढ़ते हुए मन में हुआ कि बचपन के अपने इस सबसे प्रिय साहित्यकार के बारे में कुछ दरियाफ्त किया जाए। मैंने इसके संपादक प्रो. अरुणेश 'नीरन' जी से बात की, जो मेरे एक दोस्त के पिता होने के अलावा एक प्रतिष्ठित साहित्य समालोचक भी हैं। उन्होंने जीपी श्रीवास्तव के बारे में कई मजेदार बातें बताईं। लेकिन इस उपन्यास के प्रकाशक और इसकी प्रकाशन तिथि जैसी कुछ जरूरी जानकारियां उनसे हासिल करना मुझसे उस वक्त नहीं हो पाया। नीरन जी देवरिया में रहते हैं और जल्द से जल्द इस बारे में जानकारी जुटाकर मैं यहां देने का प्रयास करूंगा। तबतक किसी और मित्र को पता चल जाए तो उसे यहां डाल दें।

गांधीजी की संक्षिप्त आत्मकथा

चोरी
इन दो अनुभवों से पहले अपने एक रिश्तेदार के साथ मुझे बीडी पीने का शौक़ हो गया था. मेरे काका को बीडी पीने की आदत थी. अतएव उन्हें और दूसरों को धुआँ निकालते देखकर हमें भी बीडी फूँकने की इच्छा हो आई. गाँठ में पैसे थे नहीं, इसलिये काका बीडी के जो ठूँठ फेंक दिया करते थे, हमने उन्हें चुराना शुरू किया.

लेकिन ठूँठ भी हर समय मिल नहीं सकते थे. इसलिये नौकर की गाँठ से जो दो-चार पैसे होते, उनमें से बीच-बीच में एकाध चुरा लेने की आदत डाली, और हम बीडी ख़रीदने लगे. किंतु हमें संतोष न हुआ. अपनी पराधीनता हमें खलने लगी. इस बात का दुख रहने लगा कि बडों की आज्ञा के बिना कुछ हो ही नही‍ सकता. हम उकता उठे और हमने आत्महत्या करने का निश्चय किया.
हम दोनो‍ ज‍गल मे‍ गये और धतूरे के बीज ढूंढ लाये. शाम का समय खोजा. केदारजी के म‍दिर की दीपमालिका मे‍ घी चढाया, दर्शन किये और एकांत ढूंढा. लेकिन ज़हर खाने की हिम्मत न पडी. अगर फ़ौरन ही मौत न आई तो? मरने से लाभ ही क्या? पराधीनता को ही क्यों न सहन किया जाय? फिर भी दो-चार बीज खाए. और अधिक खाने की हिम्मत ही न हुई. दोनों मौत से डरे और तय किया कि रामजी के मंदिर में जाकर और दर्शन करके शांत हो जाना और आत्महत्या की बात को भूल जाना है.

(पृष्ठ 12, तब गाँधीजी की उम्र 12-13 साल थी और शुरू में जिन दो अनुभवों की बात उन्होंने की है उनमें मांसाहार और वेश्यावृत्ति है)
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किताब का नाम: गांधीजी की संक्षिप्त आत्मकथा
संक्षेपकार: मथुरादास विक्रमजी
अनुवादक: काशिनाथ त्रिवेदी
प्रकाशक: नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद
मुद्रक: जीवणजी डाह्याभाई देसाई
नवजीवन मुद्रणालय, अहमदाबाद
सस्ती आवृत्ति अक्टूबर, 1952
मूल्य: बारह आना
कुल पृष्ठ: 260
आकार: पौने पांच इंच X सात इंच

Saturday 1 December, 2007

किन-किन और किस तरह के लेबलों का विभाजन चलाया जाये?

चलिए, ब्‍लाग की शुभकामना में ले-देकर चार प्रतिक्रियाएं आईं, मगर आईं तो.. इष्‍ट देव सांकृत्‍यायन, नितिन बागला और संजय तिवारी को धन्‍यवाद. अब थोड़ी कुछ काम की बातें (पहली तो यही कि किताबी कोना में पूर्ण विराम चलाया जाये, या फुलस्‍टॉप? सुझाव-टुझाव देने की आपलोगों की गति बड़ी सुस्‍त है, यारो! मेरी ओर से अलबत्‍ता एक छोटा सुझाव ये है कि दूसरे तरह के विराम के लिए, माने वाक्‍य-वाक्‍यांशों के मध्‍य तीन बिंदु की जगह दो बिंदु की इकॉनमी से काम चलायें, तो ज़्यादा बेहतर. उदाहरण के लिए, लीजिए, अभी ठेले देता हूं.. दूसरी बात, नुक़्ता बाबा का क्‍या किया जाये? मेरे जैसे अशिक्षित और ग़ैरे-तहजीब आदमी की तो हमेशा यही इच्‍छा होती है कि जल और जोर सबमें नुक़्ता ठेल दें! तो इस सिलसिले में क्‍या मानक हो, बंधुवर पढ़वैया और जानकार- एमए इन लिटरेचर, बाबू प्रियंकर सजेस्टिन करें..)

फिर पोस्‍टों के संबंध में, विषय विस्‍तार के लिहाज़ से भी, आपलोगों से अनुरोध है, ज़रा मुंह थोड़ा फैलाकर खोलें.. हद है, किसी ने अबतक कुछ कहा ही नहीं.. मतलब एक बात तो मेरे दिमाग में साफ़ है कि जिस किसी किताब का मोह-लाड़-दुलार हो (सन् पचास के बाद का कोई टाईटल)- जिसकी चर्चा करनी हो, उसे पहली प्रकाशन तिथि के अनुरुप लेखक का नाम, किताब का नाम, 1950 की किताबें.. या उसी तरह से 1960 या 1970 की किताबों के विभाजन के साथ लेबल करते चलें.. समाजशास्‍त्र, भाषा, साहित्‍य जैसा एक सब-लेबल भी हो.. लेकिन, पोस्‍टों की इस जेनेरिक नेचर से अलग थोड़ी व्‍यापकता या विषय-विस्‍तार में जिज्ञासा या ख़ास नज़र के कुछ दूसरे किस्‍म के भी लेबलों को बरता जाये? क्‍या कहते हैं? थोड़ा दिमाग चलाइए, भाई लोग..

Friday 30 November, 2007

किताबी लाल के दस्‍तखत..

ब्‍लॉग बिसमिल्‍ला करने के लिए फ़ि‍लहाल किताबी लाल कुछ ऐसी किताबों का नाम याद भर कर रहे हैं जिन्‍हें पाकर, पढ़कर किसी छुटपने की उम्र में बाग़-ओ-बहार हुए थे.. साथ ही आप सबों से इसकी अलग से माफ़ी चाहते हुए भी, कि हुज़ूर, क्षिमा करो, कि सब नाम, मुए नाविलों के ही हैं.. चलिए, हमें ठेलकर मन शांत कर लीजिएगा.. यूं भी यह ऑथेंटिक पोस्‍ट नहीं है.. कहीं सचमुच दीवार से सिर फोड़ने न लगूं, महज़ उसका सेफगार्ड भर है.. तो साहेब, किताब रसैया लोगन, नीचे चेंप रहा हूं एक छोटी पसंदीदा पुस्‍तकों की लिस्‍ट.. बिना उनकी तिथि व अन्‍य प्रकाशकीय सूचनाओं के.. बिना लेबल..

1. निराला की साहित्‍य साधना: खंड एक (रामविलास शर्मा लिखित निराला की जीवनी).
2. शानी का काला जल.
3. मंज़ूर एहतेशाम का सूखा बरगद, दास्‍तान-ए-लापता.
4. यशपाल का झूठा सच (पहले खुद यशपाल ने अपने विप्‍लव प्रकाशन, लखनऊ से छापा था, उनके मृत्‍योपरांत अधिकार लोकभारती, इलाहाबाद ने ले लिए. अब लोकभारती को राजकमल के अशोक माहेश्‍वरी ने ले लिया है).
5. निराला लिखित दो छोटी उपन्‍यासिकाएं- चतुरी चमार और बिल्‍लेसुर बकिरहा (इनका प्रकाशन निश्चित ही पचास के पहले हुआ, किंतु इन दोनों ही किताबों की भीगी चाबुक की तेज़ मार के मोह में मैं उन्‍हें पीछे की ओर खींच रहा हूं. सॉरी).
6. योगेश गुप्‍त की उनका फ़ैसला.
7. जेर्जी आंद्रेजेवेस्‍की के विख्‍यात पोलिश उपन्‍यास का रघुवीर सहाय का हिंदी अनुवाद- राख और हीरे (साहित्‍य अकादमी ने छापा था, फ़ि‍लहाल अप्राप्‍य है).
8. मुक्तिबोध की एक साहित्यिक की डायरी.
9. इंतज़ार हुसैन की किताब बस्‍ती का हिंदी लिप्‍यांतर.
10. चंद्रभूषण का काव्‍य-संग्रह इतनी रात गए (संवाद प्रकाशन, मेरठ) और आर चेतनक्रांति की शोकनाच (राजकमल, दिल्‍ली ने छापा. दोनों ही किताबों को छपे अभी ज़्यादा समय नहीं हुआ, मगर वह पुरानी होने के पहले ही भुला दी गई हैं.. इसीलिए कि इन तथाकथिक लल्‍लू-बिल्‍लू आलोचकों को कोई लात लगानेवाला नहीं).