पढ़ी थी बरसों पहले ये किताब । नाम याद नहीं था बस इतना याद था कि कुछ मीठा सोता बहा था मन में तब । कुछ भाव अटके थे , कोई देहात का गीत फँसा था , कुछ जगमागाते धूप में नहाई दुनिया की चकाचौंध थी । साल बीते पर उमग उमग कर मित्रों से किताब की बात की और शर्म में भी डूबी कि याद नहीं नाम । ऐसा भी होता है ? अधिक प्यार में प्रिय का चेहरा ही भुला देना । फिर कुछ अप्रत्याशित संयोग से किताब मिली । कुछ ऐसे जैसे फूलों के जंगल से उस एक नन्हे फूल को खोज निकालना । फिर जब हाथ में आ गई तो भय हुआ कि इस बार किताब से मेरा संबंध किस तरह का बनेगा । तब से अब में दुनिया धुरी पर कई बार घूम चुकी थी । साहित्य और जीवन को समझने के मेरे सब औजार बदल चुके थे । साहित्य समझने में मैंने एक प्रकार की दूरी भी इज़ाद की थी । भोले उत्साह की जगह शब्दों से डीटैच्ड ऑबसर्वर का संबध स्थापित कर लिया था । मैं थोड़ी जेडेड हो गई थी । शिल्प कथ्य फॉर्म पर मेरा ध्यान जाता । मैं शब्दों से उपजे भाव और खेल के प्रति निर्मम हो गई थी । एक भोले नेह का रिश्ता खत्म हुआ , मेरी उदारता खत्म हुई । मैं किसी कारीगर की कुशलता देखना चाहती , उस कुशलता से उपजे रस की अंवेषणा करती । किताब एक जादूई दुनिया के सृजन के बजाय महीन कारीगरी के मेहनती क्राफ्ट में बदल गया जैसे । इस भोलेपन का खोना दुखद था , उदासी भरा । कुछ कुछ वैसा जैसे फिल्म देखते वक्त हर समय इस बात का चौकन्नापन- कि इस फ्रेम को और बेहतर कितने तरीकों से शूट किया जा सकता था – का बोझ निर्बाध रूप से आपके देखने के सुख को बाधित करता रहे । ये शायद बड़े होने की प्रक्रिया थी । मन से और समझ से बड़े होने की । इस बड़े होने में कुछ तत्व छूट जाने का दुख था । जीवन ऐसा है , मन ऐसा है , ऐसा ही होना नियत है और इस नियत से उपजे दुख का क्लीशे , ऐसी उदासी खत्म कर दे ऐसा भी नहीं था ।
किताब कैसी हो , सोचते ही लगता जैसे कोई पूरा जीवन हो , जिसमें ढेरों पगडंडियाँ हों , बीहड़ जंगल हो , कूँये से निकला मीठा जल हो , खारे आँसुओं की गमक हो , ठहरा हुआ मासूम सुख हो , छाती में धँसा दुख हो , राग हो रंग हो , छोटी छोटी मीठी बात हो , चुप्पी से उपजा गीत हो , शैतानी बदमाशी हो , सब हो । और सब ऐसे सरल प्रवाह में हो कि उसके पीछे की कारीगरी दिखे न । जैसे मंसूर का गायन । जैसे विलम्बित तान की तैयारी । जैसे बड़े ब्रश के बाद महीन पतले ब्रश से फाईनर स्ट्रोक देना । जैसे मीठा कोई तूम तूम तन ना का तराना । जैसे बरसात के दिनों के सीलेपन में सूखे कपड़ों का पहनना ।
ऐसे बदलाव को हाथ में थामे किसी धूप नहाये पोखर में नाक बन्द करके छलाँग मारने का तुक बनता नहीं था । कोथाय पॉबो तारे ? कहाँ पाऊँ उसे ? सात सौ पन्ने की किताब और अंत तक उसका नाम नहीं मालूम जिसकी कहानी है । न , कहानी कहना गलत है । जो जीवन में ऐसे धँसा बसा है कि जितना विलग है उतना ही रमा भी है । जीवन और मनुष्य और उसकी प्रकृति ..बस यही गीत है । समरेश बसु की ये किताब अद्भुत रस का स्वाद है । उस भोली ठहरी खुशी का एक बार फिर आस्वादन है । जब समय का ऐसा बोध हो कि समय ही न रहे , उसकी पाबंदी न रहे , ऐसे किसी दिन में , धूप से आँखे बचाये , बोलपुर , राढ़ प्रदेश , बक्रेश्वर जाने कहाँ कहाँ बाउलों की संगत में जीवन को समझना , स्त्री पुरुष के मन को समझना , डोंगी पर सवार , पानी के हिचकोलों की गोद में किसी अनजान गंतव्य की ओर बहते जाना ..ऐसा आनंद है , जहाँ न मिलने का दुख , खोजते पाने के सुख में डूब जाता है । इस किताब में कहानी जैसा कुछ नहीं है । इस किताब में कोई खेल नहीं है , शब्दों का कोई जादू नहीं है । कोई कहे कि एक हिस्सा पढ़ कर सुनाओ तो ऐसा कोई एक तीखा चमकीला जादू से भरा हिस्सा नहीं है । अनुवाद की वजह से एक क्वेंट सी बांगला मिश्रित हिन्दी है । स्त्री पुरुष के आपसी संबंध की अजीब गूढ़ और फिर उतनी ही सरल , एक स्तर पर पुरातन फिर तुरत दूसरे स्तर पर एकदम सब्लाईम और खुली परिभाषा है । फिर जीव और ईश्वर और प्रकृति की बात है । उस चीज़ की हुमक है जिसे परसीव कर पाने तक की समझ हो , खुशनसीबी है |
समरेश बसु की "कहाँ पाऊँ उसे" , भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है
kitabon ko ek behtar dost kaha gaya hai..
ReplyDeletesundar bhavpurn lekh..dhanywaad
बहुत बहुत आभार....आप जैसे सहृदय ,संवेदनशील को यदि इस पुस्तक ने बंधा है ,तो निश्चित ही यह पठनीय होगी.
ReplyDeleteकिताबें पढना तो सचमुच एक जिंदगियों में कई जिंदगियों का सफ़र पूरा करने जैसा होता है.....क्या कहूँ...मेरी भी यही स्थिति है....किताब के पन्ने ऐसे बंधते हैं की नाम याद रखना नहीं हो पाता....
किताबों को पढ़ना और उससे दोस्ती किसी के लिए सुखद है। आपने ठीक कहा है कि उम्र और अनुभव के साथ उसको समझने की समझ बदलती रहती है।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
अच्छा लगा इस किताब के बारे में जानकर।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आ पहुंचा हूँ रेडियोवाणी का छोर पकड़ कर.
ReplyDeleteभावपूर्ण और संवेदनशील भाषा के लिए बधाई स्वीकारें.
और विषय तो कमाल है ही - एक अच्छी किताब के जादुई संसार में विचारने का आनंद गूंगे का गुड़ जैसा है.
विशेषकर 'किताब कैसी हो..." अंश में आपने ह्रदय के अंतर से मोती निकाल कर रखें है - सुन्दर!
बधाई हो प्रत्यक्षा जी। आपकी यह पोस्ट जनसत्ता को भा गई इसलिए आज उनके स्तंभ समांतर में संपादकीय पेज पर छप कर आ गई।
ReplyDeleteaapka blog pasand aaiya....
ReplyDelete..kitbaoon ke baare main main bhi likhna chah raha tha...
...samalochna type kuch.
aapko padha to laga blog jagat main log hain aise...
कुछ कुछ वैसा जैसे फिल्म देखते वक्त हर समय इस बात का चौकन्नापन- कि इस फ्रेम को और बेहतर कितने तरीकों से शूट किया जा सकता था – का बोझ निर्बाध रूप से आपके देखने के सुख को बाधित करता रहे
ReplyDeletepadh raha hoon aur feel kar raha hoon...
...wakai aisa hi hota hai....
...jab bhi koi movie dobara dekhta hoon to aisia vishesh taur par hota hai.
kitbaoon ka anand lena aur usko alochnatmak roop se padhna ...
..isme wakai umr ka fer hai.
kabhi shuruaat main kahani ke maze lete the ...
...ab 'bhav paksh' , 'kala paksh' 'references'
..... :(.
And unfortunately it's an obvious process...
जाने क्यों किताब शब्द आते ही मेरा मन एक खुमारी का शिकार हो जाता है... जनसत्ता के लेख के नीचे यह पता पाया... आकर निराश नहीं हुआ... शुक्रिया...
ReplyDeleteआपसे सहमत हूँ, वे सब किताबें जो विद्यार्थी जीवन में पढी थीं, उन्हें जब आज पढता हूँ तो बिल्कुल नया अर्थ दिखता है. तब किसी कहानी के भूत डरावने चरित्र लगते थे पर आज वे प्रतीक लगते हैं किसी बडी बात का.
ReplyDeleteBahut sunder aur bhawpurna,dil ko chhu gya.!
ReplyDeleteअच्छा लगा, इस ठिकाने पर आकर.
ReplyDeleteAapka I D dijiye...kuch bhejna hai.
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ReplyDeleteI appreciated what you have done here. I enjoyed every little bit part of it. I am always searching for informative information like this.
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bahut achha laga hindi kitabaon ka kona padhkar..
ReplyDeleteSundar prastuti hetu Abhar
आपके पोस्ट पर आना बहुत ही अच्छा लगा । समरेश बसु की किताबें पढा हूँ । मेरे पोस्ट पर भी आकर मेरा मनोबल बढ़ाएं । धन्यवाद ।
ReplyDeleteNice blog I like this blog and Hindi...
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आपकी यह प्रस्तुति 'निर्झर टाइम्स' पर 'रचनाशीलता की पहुंच कहाँ तक?' में लिंक किया गयी है।
ReplyDeleteआपकी अमूल्य प्रतिक्रिया http:/nirjar-times.blogspot.com पर सादर आमंत्रित है।
सादर
जब किताब के बारे में लिखे गए शब्द इतने जीवन्त और मर्मस्पर्शी हैं तो किताब कितनी जीवन से परिपूर्ण होगी । यह तो रही किताब की बात ।प्रत्यक्षा जी मुझे तो आपकी अभिव्यक्ति ही अभिभूत कर गई ।
ReplyDeleteI have read this story for the first time and I found it really very interesting and something different here. Thanks a lot for sharing this story book here..!!
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