फिल्मी दुनिया के इर्दगिर्द बुनी गई रचनाएं हिंदी में ज्यादा नहीं हैं और जो हैं वे सहज नहीं हैं। सुरेंद्र वर्मा की 'मुझे चांद चाहिए' हिंदी में अबतक सुपरहिट गए कुछ चुनिंदा उपन्यासों में गिनी जाती है। इसे शास्त्रीयता और सड़क के बीच का एक पुल भी बताया गया, लेकिन दस साल बाद यदि इसका पुनर्पाठ करें तो आश्वस्ति भाव कम हो जाता है। बहुत सारे स्टीरियोटाइप्स को लेसने वाली मठारी हुई भाषा, जो श्रीलाल शुक्ल की 'राग दरबारी' और मनोहर श्याम जोशी की 'कुरु-कुरु स्वाहा' के बाद खुद को शेष कर चुकी है। आप पढ़ते हैं और पाते हैं कि उपन्यास में दूसरी बार खोजने के लिए कुछ भी नहीं है। छिटपुट कुछ और उदाहरण लिए जा सकते हैं लेकिन हिंदी मनोजगत में सिनेमा का जितना बड़ा दखल है, उस हिसाब से साहित्य में कैंड़े का कुछ भी मौजूद नहीं है।
धीरेंद्र अस्थाना के 'नया ज्ञानोदय' में प्रकाशित हालिया उपन्यास 'देशनिकाला' से यह कमी पूरी होती है, सो बात नहीं है। कायदे से संबोधित भी होती है या नहीं, यह बात भी पूरे भरोसे के साथ नहीं कही जा सकती। लेकिन एक 'लार्जर दैन लाइफ' दुनिया को उसके औसत कद में आम इन्सानी नजर से देख पाने की संभावना इस उपन्यास में जरूर मौजूद है। फिल्मी दुनिया इस किताब में महज एक पृष्ठभूमि की तरह मौजूद है, ठीक वैसे ही जैसे मुंबई शहर की जीवंतता। लेकिन पैसे और महत्वाकांक्षा का एक महाभंवर जब आपको खींच रहा होता है, तब भी दुनिया की और किसी भी जगह की तरह आप अपना स्वतंत्र अस्तित्व कैसे बनाए रख सकते हैं, इस नोडल प्वाइंट की खोजबीन इसे फिल्मी दुनिया के शरीर के बजाय इसकी आत्मा के ज्यादा करीब ला देती है।
अगर कोई इस उपन्यास में हकीकत खोजने चले तो उसे हताशा हाथ लगेगी। शोभा डे अपने उपन्यासों में जिस दुनिया को पछीट-पछीट कर धोती हुई अपने पूरे रचनाकर्म को ही कमोबेश एक धोबीघाट बना देती हैं, वह दुनिया इसमें कहीं नजर नहीं आती। उसका टुच्चापन, उसकी गलाजत, उसके महिमामंडित मनोरोग इस उपन्यास की विषयवस्तु को कहीं से छूते तक नहीं। इन सारी चीजों की उपस्थिति इसमें सिर्फ इतनी है कि ये शहर को तीन तरफ से घेरे समुद्र की तरह बिना नजर आए दूर ही दूर से अहर्निश हरहराती रहती हैं। न इनकी कहीं निंदा होती है, न स्तुति की जाती है। ये यहां वैसे ही हैं, जैसे दिल्ली में नेताओं की नेतागिरी और दलालों की दलाली- हवा की तरह ज्यादा तंग किए बगैर चौगिर्द बहती हुई।
कहानी कभी रंगमंच से जुड़े चालीस के लपेटे में चल रहे एक युगल की है, जो कुछ दिन लिव-इन में साथ रहने के बाद फिलहाल अलग-अलग रह रहे हैं। नायिका स्टेज के बरक्स फिल्मी दुनिया को अग्राह्य नहीं मानती, हालांकि वहां कुछ शुरुआती टपले खा लेने के बाद एक अर्से से वह ट्यूशन पढ़ाने में मुब्तिला है। जबकि नायक अपने आदर्शवाद में कुछ दिन और रंगमंच के लपेटे में रहकर फिलहाल फिल्मों की स्क्रिप्ट राइटिंग में हाथ आजमा रहा है। बीच-बीच में दोनों का मिलना-जुलना भी हो जाता है, लेकिन रिश्तों में गर्मी नहीं पैदा होती। संयोग से एक बार नायक की एक कोई चीज फिल्मी दुनिया के एक नए फार्मूले में अंट जाती है और जिंदगी की राह रवां हो जाती है।
नायक के हाथ में दो पैसे आते हैं तो उसे वारिस की चिंता सताती है। नायिका को फोन करता है तो उसे शुरू में यह बेतुकी सी बात लगती है। लेकिन संयोग ऐसा कि उसी समय किसी और नए फार्मूले में उसके अभिनय के लिए भी जगह निकल आती है। सारा किस्सा किसी परीलोक जैसा है। इधर फिल्म मिलती है उधर इसी खुशी में वह मां बनने की राह पर निकल पड़ती है। करीअर या बच्चा जैसे घनघोर दुविधा वाले कुछ क्षण भी आते हैं लेकिन यह टकराव जानलेवा नहीं बनता। फिल्मी दुनिया में अब बाल-बच्चेदार हीरोइनों के लिए भी गुंजाइश बनने लगी है। अपनी दूसरी फिल्म में ही, जब वह प्रसिद्धि और उत्कृष्टता के चरम पर होती है, तो उसे छोड़कर वह अपने ट्यूशनों और अपनी बेटी की दुनिया में ही मगन रहने का फैसला लेती है।
एक समय का आदर्शवादी नायक अब फिल्मी दुनिया की अंतरंग महफिलों और राजनीति का हिस्सा बन चुका है। नायिका का फैसला उसे अहमकाना लगता है। साथ रहने की संभावना एक बार फिर समाप्त हो जाती है और मां-बेटी अपने 'देशनिकाले' की लय तलाशती रह जाती हैं। (किसका देश और काहे का देशनिकाला? जब फिल्मी करीअर के चरमोत्कर्ष पर उसे छोड़ देने जैसा बड़ा फैसला नायिका द्वारा लिया जा चुका है और अपनी मर्जी का एक 'देस' उसने पहले से ही रच रखा है तो खामखा रोने-बिसूरने के लिए इसे देशनिकाले का नाम देना जबर्दस्ती की नारीवादी ज्यादती नहीं तो और क्या है?)
एकबारगी लगता है कि इस उपन्यास में यथार्थ के बरक्स फैंटेसी कुछ ज्यादा ही हावी हो गई है। कहीं यह मुंबई फिल्म उद्योग की बेरहम दुनिया का महिमामंडन तो नहीं? लेकिन इन्सानी फैसलों को अगर इन्सानी दुनिया से जुड़ी किसी भी कहानी का मूल तत्व समझा जाए तो इस उपन्यास के कुछ बड़े मायने भी बनते हैं। सकारात्मक बातें इससे ज्यादा नहीं की जा सकतीं। क्लासिकी, बल्कि श्रेष्ठतर रचनाओं की खासियत मानवीय निर्णय और मानवीय नियति के जिस टकराव में खोजी जाती है, उसे निबाहने का धैर्य इस रचना में (सिरे से न भी सही तो) लगभग नदारद है।
निजी बातचीत में लेखक इस अधैर्य के लिए कुछ लेखकीय उलटबांसियों और कुछ प्रकाशकीय दबावों को जिम्मेदार ठहराते हैं। यह उपन्यास दरअसल राजेंद्र यादव और धीरेंद्र अस्थाना के साझा प्रयास के रूप में लिखा जाना था। अपने हिस्से के दस-बारह पन्ने लिखकर राजेंद्र जी ने दिल्ली से धीरेंद्र जी के पास मुंबई भेजे भी लेकिन वहां जिस मुकाम से रचना आगे बढ़ी उसका कोई तरल संबंध शुरुआती हिस्से के साथ नहीं बन पाया (वैसे भी 'तरल' संबंध रचनाकारों में संध्याकालीन सभाओं के दौरान जितनी आसानी से बन जाते हैं उतनी आसानी से रचनाओं के बीच कहां बन पाते हैं)।
फिर हारकर धीरेंद्र जी को शुरुआती हिस्सा भी नए सिरे से लिखना पड़ा। इधर 'नया ज्ञानोदय' के संपादक रवींद्र कालिया उपन्यास छपने की तिथि घोषित कर चुके थे, लिहाजा जो 'फाइनल ड्राफ्ट' तबतक बन पाया था वह पत्रिका के पैंतालीस पृष्ठों में छप गया। रचना इस रूप में भी दिलचस्प है। भाषा में पत्रकारिता की रवानी है (मुंबई की महाबरसात की महा-रिपोर्टिंग इस प्रस्थापना की पुष्टि कुछ ज्यादा ही शिद्दत से करती है) और अंतिम एक-दो पैराग्राफों को छोड़कर फिल्मी या साहित्यिक स्टीरियोटाइप भी कहीं नजर नहीं आते। लेकिन जबतक किताब के रूप में नहीं छपती तबतक इसे घर की लड़की घर में ही रहने जैसी बात समझा जाना चाहिए। पुस्तकीय रूप में आने तक अंतिम टुकड़े पर कुछ और काम कर लेने में मुझे कोई बुराई नहीं नजर आती।