Saturday, 1 December 2007

किन-किन और किस तरह के लेबलों का विभाजन चलाया जाये?

चलिए, ब्‍लाग की शुभकामना में ले-देकर चार प्रतिक्रियाएं आईं, मगर आईं तो.. इष्‍ट देव सांकृत्‍यायन, नितिन बागला और संजय तिवारी को धन्‍यवाद. अब थोड़ी कुछ काम की बातें (पहली तो यही कि किताबी कोना में पूर्ण विराम चलाया जाये, या फुलस्‍टॉप? सुझाव-टुझाव देने की आपलोगों की गति बड़ी सुस्‍त है, यारो! मेरी ओर से अलबत्‍ता एक छोटा सुझाव ये है कि दूसरे तरह के विराम के लिए, माने वाक्‍य-वाक्‍यांशों के मध्‍य तीन बिंदु की जगह दो बिंदु की इकॉनमी से काम चलायें, तो ज़्यादा बेहतर. उदाहरण के लिए, लीजिए, अभी ठेले देता हूं.. दूसरी बात, नुक़्ता बाबा का क्‍या किया जाये? मेरे जैसे अशिक्षित और ग़ैरे-तहजीब आदमी की तो हमेशा यही इच्‍छा होती है कि जल और जोर सबमें नुक़्ता ठेल दें! तो इस सिलसिले में क्‍या मानक हो, बंधुवर पढ़वैया और जानकार- एमए इन लिटरेचर, बाबू प्रियंकर सजेस्टिन करें..)

फिर पोस्‍टों के संबंध में, विषय विस्‍तार के लिहाज़ से भी, आपलोगों से अनुरोध है, ज़रा मुंह थोड़ा फैलाकर खोलें.. हद है, किसी ने अबतक कुछ कहा ही नहीं.. मतलब एक बात तो मेरे दिमाग में साफ़ है कि जिस किसी किताब का मोह-लाड़-दुलार हो (सन् पचास के बाद का कोई टाईटल)- जिसकी चर्चा करनी हो, उसे पहली प्रकाशन तिथि के अनुरुप लेखक का नाम, किताब का नाम, 1950 की किताबें.. या उसी तरह से 1960 या 1970 की किताबों के विभाजन के साथ लेबल करते चलें.. समाजशास्‍त्र, भाषा, साहित्‍य जैसा एक सब-लेबल भी हो.. लेकिन, पोस्‍टों की इस जेनेरिक नेचर से अलग थोड़ी व्‍यापकता या विषय-विस्‍तार में जिज्ञासा या ख़ास नज़र के कुछ दूसरे किस्‍म के भी लेबलों को बरता जाये? क्‍या कहते हैं? थोड़ा दिमाग चलाइए, भाई लोग..

6 comments:

  1. किताबी लाल जी हम नुक्‍तों के लेकर थोड़े सेन्‍टीमेन्‍टल हैं । पहले भी कह चुके हैं कि नुक्‍ता होना चाहिए । डॉट हो या पूर्ण विराम क्‍या फर्क पड़ता है । रही बात दशक के हिसाब से विभाजन की तो भैया किताबी लाल जिन किताबों को भुला बिसरा दिया गया है उनका साल कैसे याद आएगा । हमारे मन में इत्‍ती सारी किताबों की याद है कि क्‍या कहें । पर ना तो उनके प्रकाशक का नाम याद है और ना ही प्रकाशन के साल या दशक का । बताईये क्‍या करें ।

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  2. नुक्‍ते की बात पर स्‍वयं मैं अभी भी संशयग्रस्‍त हूं. रही बात ऐसी मोहिनी किताबों की जिनके प्रकाशन की न तिथि याद है न प्रकाशक का नाम.. तो भइया, ऐसी किताबों के लिए एक लेबल रखें, 'भूली-बिसरायी' या ऐसा ही कुछ.. ये प्रॉबलम नहीं.

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  3. मुझे ये आज़ादी का कट ऑफ़ इयर समझ में नहीं आया. क्या इसका कुछ ख़ास मक़सद है. बाक़ी ठीक है. मस्त है.उम्मीद है कि अब किताबी लाल अलाय-बलाय लिखने के बजाय कुछ ढंग की बात लिखेंगे.

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  4. Dekhiye dashak se achchhaa hai ki varsh kaa lebel lagaayein.Kyonki har varsh mein kaee kitaabein mileingee.

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  5. इरफ़ान मियां, आपकी या जाने किसकी बलाओं से हम अलाय-बलाय तो लिखेंगे, शायद उसीमें कुछ काम का भी निकल जाये (माने आपके काम का). रही बात वार्षिक विभाजन की, तो ऐसा मोह न पालिए. फिर यहां वही ख़तरा होगा कि हम इन कुशवाहा और उन कांतों के किस्‍से दोहराना चालू करेंगे. और पचास वाला विभाजन इसलिए है कि कम-अज-कम वह ऐसा डिविज़न है कि उसके बाद की किताबें कुछ-कुछ हमारे अवचेतन में दर्ज़ हैं. जनरल टर्म्‍स में कह रहा हूं. उसके पहले की दुनिया , कि उसके बारे में आप ठोस-ठोस राय बनायें, हमारे लिए कुछ घुंधली है. इस विभाजन के पीछे आइडिया यही था.

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  6. समझ गया. तो भाई किताबी लाल शुरू कीजिये ताकि लाइन लेन्ग्थ का पता चले.

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